DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :सर्वा-ग्रहणमवयव्यसिद्धेः II2/1/32
सूत्र संख्या :32

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : उक्त सूत्र में जो आपेक्ष किया है, उसका उत्तर यह है कि यदि अवयवी को न माना जाये तो सब स्वरूप के न होने से द्रव्य गुण सामान्य आदि की सिद्धि न होगी और इनके सिद्ध न होने से किसी वस्तु का भी प्रत्यक्ष ज्ञान न हो सकेगा। ऐसी दशा में सब वस्तुएं परमाणु रूपी ही ही माननी पड़ेंगी और परमाणु इन्द्रियों से ज्ञात नहीं हो सकते।

व्याख्या :
प्रश्न-अवयवी के न मानने से द्रव्य की सिद्धि क्यों कर न होगी? उत्तर- जिन द्रव्यों का इन्द्रियों से ज्ञात करते हैं, उन्ही का होना स्वीकार किया जाता है और जो किसी प्रमाण से ज्ञात न हो उसके अस्तित्व को ठीक तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्द्रियों से अवयवी का ही ज्ञान होता हजै, केवल अवयव का नहीं। यदि कोई अवयवी न हो तो उसका ज्ञान कैसे हो सकता है? और यदि द्रव्य का ज्ञान न हो तो उसमें रहने वाले गुणादिकों का कैसे ज्ञान हो सकता है? प्रश्न-जबकि द्रव्य कारण और कार्य दो प्रकार के माने जाते हैं, तो अवयवी के न होने से कार्य द्रव्यों का ज्ञान न होगा, कारण का तो जरूर ही होगा। इस तरह पर अवयवी के न मानने पर भी यह आपेक्ष दूर हो जायेगा। उत्तर-क्योंकि जीवात्मा बिना साधन अर्थात् मन इन्द्रिय आदि के बिना किसी वस्तु का ज्ञान नहीं कर सकता। जितनी इन्द्रियां हैं वे सब कार्यद्रव्य को ज्ञात करके ही कारण का अनुभव किया करती हैं। कार्य के न मालूम होने पर कार्य कारण दोनों का ही ज्ञान न होगा, इस वास्ते अवयवी का मानना आवश्यक है। प्रश्न-क्या अणुपरिमाण वाले का ज्ञान नहीं हो सकता? केवल महापरिमाण का ही प्रत्यक्ष होता है? उत्तर-न तो अणुपरिमाण अर्थात् सबसे छोटी वस्तु का प्रत्यक्ष होता है और न पहापरिमाण अर्थात् सबसे बड़ी वस्तु का, किन्तु मध्यम परिमाण अर्थात् बिचने दर्जें की वस्तुओं का प्रत्यक्ष होता है। अब अवयवी के न होने में और मुक्ति देते हैं-

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