सूत्र :वर्तमानाभावे सर्वाग्रहणम्प्रत्यक्षा-नुपपत्तेः II2/1/40
सूत्र संख्या :40
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि वत्र्तमान काल को न माना जावे तो प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा से जो ज्ञान होता है, उस सब का लोप हो जावेगा। क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं। जो वस्तु वत्र्तमान है, उसको इन्द्रि ग्रहण करते हैं अविद्या को नहीं। यदि यह माना जावेगा कि विद्यमान कोई वस्तु नहीं तो प्रत्यक्ष का कारण और प्रत्यक्ष होने वाली वस्तु और प्रत्यक्ष ज्ञान इन सबका विलोप हो जावेगा और प्रत्यक्ष के सिद्ध न होने से अनुमानादि प्रमाण भी जो प्रत्यक्ष से सिद्ध होते हैं, असिद्ध हो जाएंगे और फिर सब प्रमाणों के विलोप होने से पदार्थ का यथार्थ ज्ञान न हो सकेगा। इसलिए प्रत्यादि प्रमाण और उस से होने वाले ज्ञान की सिद्धि के लिए भी वत्र्तमान काल को अवश्य मानना पड़ेगा। वत्र्तमान काल कहीं तो वस्तु की सत्ता से जाना जाता है और कहीं त्रिया से अपलक्षित होता है जैसे किसी वस्तु के उपस्थित होने से उसकी सत्ता वत्र्तमान काल को बतलाती है और त्रिया में जैसे लिखता है, बोलता है, इस से भी वत्र्तमान काल में लिखना और बोलना सिद्ध होता है और त्रिया के सम्पादन में और जितने साधन हैं, उनको त्रिया सन्तान कहते हैं। जैसे लिखने के वास्ते पत्र, लेखनी और दवात आदि, ये सब त्रिया के अेग हैं।
प्रश्न- वत्र्तमान काल की सीमा क्या है?
उत्तर-जब तक कार्य प्रारम्भ होकर त्रिया सन्तान की प्रबत्ति रहती है अर्थात् उस कार्य के अवसान तक वत्र्तमान काल कहाता है। अब सूत्रकार भूत और भविष्य का लक्षण करते हैं।