सूत्र :प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवित-ण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः II1/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रश्न-न्याय किसे कहते हैं?
उत्तर-प्रमाणों से किसी वस्तु का निर्णय करना न्याय कहलाता है।
प्रश्न-प्रमाण किसे कहते है?
उत्तर-अर्थ के यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। और प्रमाण के वास्ते आत्मा को जिन कारणों की आवश्यकता होती है वह प्रमाण कहलाते हैं।
प्रश्न-प्रमाण के क्या लाभ है?
उत्तर-बिना प्रमाण के किसी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के किसी काम करने और छोडने में मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता, इस कारण कार्य में प्रवृति कराने वाला प्रमाण है।
प्रश्न-प्रमाण से ज्ञान प्राप्त करने के वास्ते किन वस्तुओं की आवश्यकता है?
उत्तर-प्रत्येक अर्थ के जानने के वास्ते चार वस्तु होती हैं प्रथम प्रमाता अर्थात वस्तु को जानने वाला दूसरा प्रमाण जिसके द्वारा वस्तु को जान सकें। तीसरा प्रमेय अर्थात वह वस्तु तो प्रमाण के द्वारा जानी जावे। चौथे प्रमिति अर्थात् वह ज्ञान जो प्रमाता प्रमाण और प्रमेय के सम्बन्ध से उत्पन्न हो।
प्रश्न-अर्थ किसे कहते हैं।
उत्तर-जो सुख में सुख का कारण और दुःख में दुःख का कारण हो उसे अर्थ कहते हैं।
प्रश्न-प्रवृत्ति किसे कहते हैं?
उत्तर-जब प्रमाता अर्थात् जानने वाला किसी को जान लेता है तो उसके त्यागने या प्राप्त करने के वास्ते जो परिश्रम करता है उस परिश्रम को प्रवृत्ति कहते हैं।
प्रश्न-प्रमाण से चीजों की सत्ता का ज्ञान होता है, उसके अभाव के ज्ञान का क्या कारण है?
उत्तर-जो प्रमाण विद्यमान वस्तुओं के अस्तीत्व को प्रकट प्रत्यक्ष करता है वही प्रमाण वस्तुओं के अभाव का ज्ञान कराता है।
प्रश्न-न्याय दर्शन में कितने पदार्थ माने जाते हैं?
प्रमाण, संशय प्रयोजन, दृष्टान्त सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, जल्प, वह बाद जो हार जीत के लिये युक्ति शून्य हो, वितन्डा वह बहस जिसमें एक पक्ष वाला अपना कोई सिद्धान्त न रखता हो केवल दूसरों के सिद्धान्तों का खण्डन करे, हेत्वा भास छल अर्थात् धोखा, जाती अर्थात् निग्रह स्थान हारने का चिन्ह इन सोलह पदार्थों के तत्व ज्ञान से मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता हैं।
व्याख्या :
प्रश्न-ज्ञान सदा प्रमेय का होगा और उसी से मुक्ति होगी शेष सब कारण उसके साधन हैं इस वास्ते सब से पीछे प्रमेय का वर्णन करना चाहिए था कि जिसके ज्ञान से मुक्ति प्राप्त हो प्रमाण का पहिले वर्णन करना हमारी सम्मति में ठीक नहीं है।
उत्तर-क्योंकि सदा सोना खरीदने से पहिले कसोटी का पास होना आवश्यक है और बिना कसोटी के सोने के खरे, खोटे होने का ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार प्रमाण के बिना प्रमेय का ज्ञान नहीं हो सकता ऐसे ही प्रमाण के बिना यह ज्ञान नहीं हो सकता और न यह ज्ञान है कि ये प्रमेय आत्मा के लिये लाभदायक है अथवा हानिकारक है।इस कारण सबसे पूर्व प्रमाण का वर्णन किया है।
प्रश्न-प्रमाण और प्रमेय के बिना अन्य पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ जो संसार में विद्यमान हैं वे सब प्रमेय के अन्तर्गत आ जाते हैं।
उत्तर-क्योंकि संसार में दुःख और सुख का अनुभव मन को होता है।इसलिये किसी वस्तु के देखने से पहले यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि यह वस्तु सुख अथवा दुःख का कारण है और ऐसा ही ज्ञान संशयक होता है अतएव संशय का वर्णन आवश्यक है उसके निवृत्यर्थ निर्णय की आवश्यकता है।
प्रश्न-पुनः प्रयोजन क्यों कहा !
उत्तर-यदि निर्णय करने का कोई प्रयोजन नहीं हो तो कोई बुद्धिमान तो क्या कोई मूर्ख भी इतना परिश्रम नहीं करेगा। मनुष्य से प्रत्येक कर्म कराने वाला प्रयोजन ही सबसे मुख्य है जब मनुष्य दुःख से छुटना और सुख को प्राप्त करना अपना प्रयोजन नियत कर लेता है तब उसके कारण की खोज करता है जब प्रयोजन ही न तो किसके पूर्ण करने के लिये विद्यार्थीपन का कष्ट सहन किया जाय। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु निर्णयार्थ आवश्यक थी उसका वर्णन महात्मा गौतम जी ने न्याय दर्शन में कर दिया है। इन पदार्थों का विभाग और वर्णन भली प्रकार इस ग्रन्थ में आ जाएगा महात्मा गौतम जी के न्याय दर्शन का प्रथम सूत्र मूल और शेष सब सूत्र उसकी व्याख्या हैं जो मनुष्य इस दर्शन को पढ़ना चाहें उनको इन तीन बातों का ध्यान करना उचित है।
प्रथम तो उद्धेश्य, अर्थात किसी वस्तु को बतलाया जाता है तरनन्तर उसका लक्षण किया जाता है पुनः लक्षण की परीक्षा करी जाती है, अर्थात लक्ष्य में लक्षण घटता है अथवा नहीं। और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जब परीक्षा की जाती है तब उसमें तीन प्रकार के सूत्र आते हैं। 1. पूर्वपक्ष, 2. उत्तर पक्ष, 3. सिद्धान्त।
प्रश्न-उद्धेश्य किसे कहते हैं।
उत्तर-जब किसी वस्तु का नाम बतलाया जाए उसे उद्धेश्य कहते हैं, जैसे किसी ने कहा कि पृथ्वी है ?
प्रश्न-लक्षण किसको कहते हैं।
उत्तर-जो गुण एक वस्तु दूसरी वस्तु से पृथक कर दे अथवा दूसरों को इससे विभिन्न कर दे वह लक्षण कहाता है।
प्रश्न-परीक्षा किसे कहते हैं।
उत्तर-किसी वस्तु का लक्षण उस वस्तु में विद्यमानता कि लिये (जांच) की जाती है और यह देखा जाता है कि इस लक्षण में कोई दोष तो नहीं ? उसे परीक्षा कहते हैं।
प्रश्न- लक्षण में जो दोष होते हैं वे कितने प्रकार के होते हैं।
उत्तर-तीन प्रकार के , प्रथम 1 अतिव्याप्ति अर्थात् वह गुण जो कि अन्य वस्तुओं मे भी देखा जाय। जैसे किसी से कहा गौ किसे कहते हैं दूसरे ने कहा-सींग वाले व्यक्ति में वर्तमान हैं। अतः यह लक्षण अति व्याप्ति हो गया अर्थात् लक्ष व्यक्ति से अन्यों में भी चला गया। द्वितीय अव्यप्ति अर्थात् वह गुण जो गुणी में विद्यमान न हो, जैसे कोई मनुष्य पूछे अग्नि किसे कहते हैं, उत्तर मिले कि जो भारी गुरू हो क्यांकि अग्नि में गुरूत्व नहीं, अतः यह लक्षण भी उचित नहीं ! तृतीय(3) असम्भव जैसे किसी ने पूछा कि अग्नि किसे कहते हैं तो दूसरे ने कहा कि जिसमें शीतलता हो क्योंकि अग्नि में शैत्य नहीं होता अतः यह लक्षण भी युक्त नहीं।
इन तीन(3) प्रकार के दोषों में कोई भी लक्षण में हो तो वह लक्षण ठीक नहीं होगा।
प्रश्न-तत्व ज्ञान और दुःख में कोई विपरीतता नहीं तो तत्व ज्ञान से मुक्ति किस प्रकार से हो सकती है और तत्व ज्ञान के होते ही मुक्ति हो जाती है अथवा कुछ काल के पश्चात्-