DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :सेनावनवद्ग्रहणमिति चेन्नातीन्द्रियत्वादणूनाम् II2/1/34
सूत्र संख्या :34

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : सेना और वृक्ष की तरह मानना भी ठीक नही, क्योकि सेना और वन के वृक्षों का पृथक-पृथक होने का ज्ञान केवल दूर से देखने के कारण से नहीं होता वस्तुतः उनमें पृथकता होती ही है। दूरता दोष से उन वृक्षों के भेद-शीशम, आदि का भी ज्ञान नहीं होता। परन्तु यह दृष्टान्त, परमाणु समूह को एक सिद्ध करने के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु किसी इन्द्रिय का विषय नहीं, और सेना तथा वन के वृक्षों के देखने से उनके होने मात्र का ज्ञान नहीं होता, किन्तु मनुष्य जाति तथा वृक्ष जाति का ज्ञान होता है। और वस्तु की जाति का ज्ञान होने से और वस्तुओं की पृथकता का ज्ञान न होने से ‘एक’ है ऐसा जो ज्ञान पैदा होता है और परमाणुओं में एक होने का ज्ञान होने और किसी कारण से पृथक होने का ज्ञान न से जो ‘एक’होने का ज्ञान होता है वह परीक्षणीय हैं कि क्या परमाणुओं समूह ही एकत्व ज्ञान का कारण है या नहीं, इसकी परीक्षा करनी चाहिए।

व्याख्या :
प्रश्न-क्या सेना और वन के वृक्ष, अणु समूह की तरह अलग-अलग होने पर एक नहीं मालूम होतें? उत्तर-जब तक अवयवों से अवयवी न बन जाये अर्थात् महापरिमाण वाला न हो जाये तब तक वह इन्द्रिय से नहीं जाना जा सकता और जो वस्तु इन्द्रियों से ज्ञात न हो सके वह दृष्टान्त में नहीं आ सकती क्योंकि वह स्वयं प्रमाणपेक्षी है। प्रश्न- सेना वन के वृक्ष भी परमाणुओं के समह ही हैं, जैसे उनका प्रत्यक्ष होता है वैसे ही परमाणुओं के समूह के प्रत्यक्ष होने से आवयवी कोई वस्तु नहीं। उत्तर-यह युक्ति ठीक नहीं, क्योंकि परीक्षा इस बात की हो रही है कि अवयवी, केवल परमाणुओं को समूह मात्र है न परमाणुओं में संयोग शक्ति के कारण एक अवयवी कोई पृथव बन गया है; जब कत यह सिद्ध न हो जाय कि अवयवी कोई वस्तु नहीं, सिवाय परमाण समूह के, तब तक यह दृष्टान्त ठीक नहीं हो सकता। प्रश्न- यद्यपि वे सेना के मनुष्य और वन के वृक्ष पृथक-पृथक हैं, परन्तु उनकी पृथकता प्रसिद्ध नहीं होती, यह दृष्टान्त प्रत्यक्ष देखा जाता है, इसलिए यह ठीक है कि अवयवी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं किन्तु परमाणु समूह मात्र है और जो वस्तु प्रत्यक्ष हो उसका खण्डन हो नहीं सकता। उत्तर-यद्यपि वन के वक्षों और सेना के मनुष्यों की पृथकता का ज्ञान न होना ठीक है और प्रत्यक्ष होने से परीक्षणीय नहीं परन्तु व्यभिचारी होने से प्रत्यक्ष लक्षण के अन्तभूति नहीं हो सकता, क्योंकि उसके समीप जाने पर सेना का प्रत्येक पुरूष और जंगल का प्रत्येक वृक्ष, पृथक-पृथक मालूम होते हैं, इसलिए यह दृष्टान्त ठीक नहीं। प्रश्न- इस दृष्टान्त के कह देने से अवयवों की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि दृष्टांत एक अंश में हुआ करता है, यदि सर्वांश में दृष्टांत हो तो दृष्टांत ही क्यों कहा जाय? किन्तु दृष्टांत (जिसके लिए दृष्टांत दिया जाता है वह) ही हो जाये। उत्तर- यद्यपि यह ठीक है कि दृष्टांत के ठीक होने से सिद्धान्त ठीक नहीं रहता। अर्थात् जीवात्मा की सिद्धि में दृष्टान्त दिया जाये, यदि दृष्टान्त से वह सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। इसलिए तुम्हारा यह सिद्धान्त कि समष्टि कोई वस्तु नही, केवल परमाणुओं कस संघात है, सर्वंथा खण्डित हो गया, अब इससे आगे अनुमान प्रमाण की परीक्षा होगी। वादी प्रत्यक्ष प्रमाण के खण्डन में बहुत से हेतु देने पर भी जब उनका खण्डन न कर सका तो अब अनुमान प्रमाण का खण्डन करने के लिए निम्नलिखित सूत्र से आपेक्ष करता है अर्थात् इस सूत्र से अनुमान की परीक्षा आरम्भ होती है। अनुमान के लक्षण में यह बतलाया गया था कि अनुमान तीन प्रकार का होता है। (1) पूर्ववत् (2) शेषवत् (3) सामान्यतो दृष्ट। इन तीनों प्रकार के अनुमान के लिए जो दृष्टान्त दिए गए हैं, उनमें व्यभिचार दोष दिखलाकर उसका खण्डन करता है।

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