DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :कृतताकर्तव्यतोपपत्तेस्तूभयथा ग्रहणम् II2/1/41
सूत्र संख्या :41

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जब कोई आरम्भ होकर समाप्त हो जाव, उसको भूत काल कहते हैं, उसमें चुकि त्रिया की समाप्ति हो चुकि हैं, इसलिए उसको कृता कहते हैं, जैसे कहा जावे कि ‘‘देवदत्त पुस्तक लिख चुका’’ यहां लिखना त्रिया की समाप्ति हो चुकी, इस भूतकाल को सूत्रकार ने कृतता शब्द से निर्देश किया है। जब कोई कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ, न कोई त्रियासन्तान ही उपयोग में लाये गये हैं किन्तु उस कार्य के आरम्भ करने का मन में संकल्प है, वह अनागत या भविष्य काल है, उसमें क्योंकि अभी त्रिया का आरम्भ नहीं हुआ, इसलिए उसको कत्र्तव्यता के शब्द से निर्देश किया है अर्थात् जो किया जायेगा, जैसे कहा जावे कि ‘‘देवदत्त पुस्तक लिखेगा’’ यहां अभी लिखना त्रिया का आरम्भ नहीं हुआ, इन दोनों के अतिरिक्त जब कोई कार्य आरम्भ तो हो गया है, परन्तु अभी समसप्त नहीं हुआ है यह न तो भूतकाल ही है न भविष्य काल, किन्तु इसको वत्र्तमान काल कहते हैं। इसको न तो कृतता के शब्द से निर्देश किया जा सकता है, न कत्र्तव्यता के, किन्तु इसे त्रियामाण शब्द से निर्देश किया जाएगा। इस त्रियामाण को न तो भूतकाल में सन्निवष्ट काल में हैं क्योकि अभी त्रिया की समाप्ति नहीं हुई और न भविष्य काल में इसकी गणना हो सकती है, क्योंकि कार्यारम्भ हो गया है। अतएव भूत और भविष्य इन दोनों से व्यतिरिक्त यह तीसरा वत्र्तमान काल है, जिसके भूत और भविष्य का मानने वाला कभी इनकार नहीं कर सकता। अनुमान की परीक्षा हो चुकी। उसी के प्रसंग में काल विवेचन भी किया गया, अब उपमान की परीक्षा आरम्भ करते हैं प्रथम सूत्र में पूर्वपक्ष का, आधय लेकर उपमान का खण्डन किया हैं-

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