सूत्र :अत्यन्तप्रायैकदेश-साधर्म्यादुपमानासिद्धिः II2/1/42
सूत्र संख्या :42
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वादी कहता है, तुम जो उपमान प्रमाण मानते हो, उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उपमान के लक्षण में तुमने यह बतलाया था कि सार्धर्म्य सेसाध्य को सिद्ध करना उपमान है। अब साधर्म्य का होना तीन दशाओं में हो सकता है। प्रथम तो अत्यन्त साधम्य अर्थात् समस्त लक्षणें का मिल जाना। यह तो उपमान कहला ही नहीं सकता। जैसे कोई कहे गौ के सदृश गो होती है, इसको कोई उपमान नहीं कह सकता। दूसरे बहुत से लक्षणों के मिलने से भी उपमान नहीं होता, जैसे गौ के चार पैर हैं, भैंस के भी चार पैर हैं। गौ के सींग हैं, भैंस के भी ससींग हैं, गौ के पूँछ है, भैंस के भी पूँछ हैं। इस प्रकार अनेक धर्मों के मिलने से गौ की उपमा भैंस से नहीं दी जा सकती। तीसरे किसी एक धर्म के मिलने से भी उपमान की सिद्धि नहीं होती। क्योंकि प्रत्येक वस्तु की किसी सरी वस्तु के साथ किसी न किसी धर्म में समान्ता होती है, जैसे सरसों का दाना मूत्र्तिमान है और हिमालय पहाड़ भी मूत्र्तिमान् है, केवल मूत्र्तिमान होने से ये दोनों उपमेय और उपमान नहीं हो सकते। अतएव न तो सब धर्मों के मिलने से न अनेक धर्मों के मिलने से और न किसी एक धर्म के मिलने से उपमान की सिद्धि होती है। अतः उपमान की प्रमाण मानना ठीक नहीं। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं।
।।43।। उपमान के लिए प्रसिद्ध धर्मों का मिलना आवश्यक है, क्योंकि हमने उपमान के लक्षण में प्रसिद्ध साधर्म्य से साध्य को सिद्ध करना कहा था, अत्यन्त अधिक और एक धर्म की समांता को उपमान नहीं कहा, इसलिए उक्त सूत्र में कहे हुए दोष प्रसिद्ध साध्म्र्य से सिद्ध होने वाले उपमान में नहीं लग सकते। इस पर वादी फिर आक्षेप करता हैं-