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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

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सूत्र :न चैकदेशोपलब्धिरवयविसदभावात II/1/30
सूत्र संख्या :30

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : एक अवयव का प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्ष को सिद्ध करके इस सूत्र में दूसरे अवयव का प्रत्यक्ष होना सि़ करते हैं-भाव यह है कि एक अवयव के प्रत्यक्ष होने से केवल उस अवयव का ही ज्ञान नहीं होता किन्तु अवयवी के ‘सत्’ होने से एक अवयव के ज्ञान होते ही उसके साथी दूसरे अवयवों के समूहभूत अवयवी का भी हो जाता है। अवयवी के दो प्रकार के अवयव हैं- एक प्रत्यक्ष से गम्य, दूसरे अगम्य, परन्तु एकावयव ज्ञान से समूहभूत अवयवी का ज्ञान होना असम्भव नहीं किन्तु कारण के साथ ही कार्य का ज्ञान लोक में देखा गया। है।

व्याख्या :
प्रश्न- जब एक भाग से दूसरा भाग पृथक है तो एक के ज्ञान से दूसरे का ज्ञान किस प्रकार हो सकता हैं? उत्तर-यह प्रश्न ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में तो एक भाग भी प्रत्यक्ष नही माना जायेगा, क्योंकि एक भाग को दूसरे भाग की इन्द्रियों से सम्बन्ध होने में रूकावट होगी। इस प्रकार किसी पूरी वस्तु को मालूम नहीं कर सकेंगे। क्योंकि न तो सम्पूर्ण वस्तुओं का इन्द्रियों से सम्बन्ध हो सकता है और न सम्पूर्ण का और न ही उस उस भाग का जिसका ज्ञान हुआ हैं? ज्ञान समाप्त होता है, यह एक भाग से दूसरे के न मालूम हाने का खण्डन है क्योंकि जब कुछ शेष न रहे तो सम्पूर्ण का ज्ञान होता है यदि कुछ भाग शेष रह जाये तो सम्पूर्ण नहीं कहला सकता। एक वस्तु में दूसरी के मिले होने से इन्द्रिय और विषयों के सम्बन्ध में विषयों से रूकावट होती है। इस प्रकार रूकावट होने से ज्ञान न होना चाहिए, किन्तु जब सम्पूर्ण का ज्ञान होना न मानोगे तो सम्पूर्ण कोई वस्तु ही न होगी और जब सम्पूर्ण कोई वस्तु न मानी जाये तो प्रत्यक्ष के विपक्षी से पूछा कि फिर किसके एक भाग का प्रत्यक्ष मानोगे क्योंकि सम्पूर्ण के न होने से भाग कहला सकता है और सम्पूर्ण होना उसके ज्ञान होने से मालूम हो सकता है। प्रश्न-क्या जिस वस्तु का ज्ञान न हो उसको शून्य मानना चाहिए? उत्तर- हां जिस वस्तु का किसी प्रमाण से भी ज्ञान न हो सके, उसकी सत्ता किसी प्रकार हो हो नहीं सकती। जितनी चीजें है सबके जानने के वास्ते कोई न कोई प्रमाण है, यदि कोई यह माने कि बहुत सी ऐसी वस्तुएं है जो प्रमाणों से नही जानी जातीं, जैसे ‘ईश्वर’ तो उसका कहना बिल्कुल ठीक नहीं क्योंकि वस्तुओं की सत्ता प्रमाण से ही प्रतीती होती है। प्रश्न- ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, किन्तु ईश्वर की सत्ता को लोग मानते हैं। उत्तर-प्रथम तो ईश्वर की सत्ता में शब्द प्रमाण है जिसें सम्बन्ध से बहुत से प्रमाण मिल सकते हैं। दूसरे सृष्टि की रचना से उसका अनुमान हो सकता है। इस वास्ते यह यह कहना कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं, ठीक नहीं। तात्पर्य इस सूत्र का यह है कि जिस प्रकार जिन वस्तुओं को हम देखेंगे तो उसके ऊपर के भाग का प्रत्यक्ष होगा अन्दर के भागों का नहीं होगा। उदाहरण यह है कि हम एक आदमी को देखते हैं तो उसकी त्वचा का प्रत्यक्ष होता है अन्दर के भागों का नहीं। अब त्वचा का नाम तो आदमी नहीं। आदमी तो कुल शरीर का नाम है। लेकिन कहा यह जाता है कि हम मनुष्य को प्रत्यक्ष देखते हैं। यह नहीं कहते कि हम त्वचा को देखते हैं। इस वास्ते एक देश के प्रत्यक्ष होने से सम्पूर्ण का ज्ञान हो जाता है और वह ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। प्रश्न- यदि इस प्रकार त्वचा का देखकर शरीर के प्रत्यक्ष का पक्ष किया जाये तो उस अवस्था में ठीक हो सकता हैं कि जिस अवस्था में सम्पूर्ण शरीर को ठीकक मान लिया जाये, जब सम्पूर्ण न माना जाये तो वस्तु को देखने से सम्पूर्ण का ज्ञान किस प्रकार हो सकता है? उत्तर-जब तुम वृक्ष के एक भाग को देखकर सम्पूर्ण वृक्ष का अनुमान करना मंजूर करते हो तो सम्पूर्ण के होने में किस प्रकार संशय करते हो। जब सम्पूर्ण की सत्ता का इकरार कर लिया तो एक भाग देखने से सम्पूर्ण का ज्ञान होना ठीक है, इस पर विपक्षी प्रश्न करता है।