DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :प्रत्यक्षमनुमानमेकदेशग्रहणादुपलब्धेः II2/1/28
सूत्र संख्या :28

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : अर्थ-अब प्रत्यक्ष की परीक्षा में यह पक्ष उठाते हैं कि प्रत्यक्ष का मानना बेदलील है क्योंकि प्रत्यक्ष में जो जक्षण कहा है, कि इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है तो जब वृक्षादि के एक भाग को देखकर शेष सारे वृक्ष का ज्ञान हो जाता है। तो यह ज्ञान प्रत्यक्ष के लक्षण में तो आ नहीं सकता, क्योंकि कुल अर्थ के साथ इन्द्रिय का संयोग नही हुआ और ज्ञान पूरे वृक्ष का हुआ है। इसलिए इसको अनुमान ही समझना चाहिए क्योंकि वृक्ष का एक भाग वृक्ष नहीं है, किन्तु जिस तरह धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान होता है। इसी तरह वृक्ष के एक भाग को देख कर वृक्ष का अनुमान होता है। इसके उत्तर में विपक्षी से यह कहना चाहिए कि क्या उस भाग से जिससे इन्द्रियों ने जाना है शेष वृक्ष को दूसरी वस्तु मानकर उसका अनुमान के योग्य होना मानते हो, यदि कथन करो एकसा ही मानते हैं तो जिस देश के भागों को इन्द्रिय के संयोग से जाना है उसको छोड़कर शेष भाग अनुमेय रहेंगे न कि वृक्ष का अनुमान होगा, क्योंकि जिस भाग को जान लिया है उसके जानने के वास्ते दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं और एक टुकड़े से दूसरे टूकड़े के अनुमान में कोई युक्ति नहीं, क्योंकि इससे कोई व्याप्ति नहीं, और एक भाग के अनुमान को सबका अनुमान कहना मिथ्या ज्ञान है।

व्याख्या :
प्रश्न-एक भाग के प्रत्यक्ष से दूसरे भाग का अनुमान करने में क्या दोष होगा? उत्तर-प्रथम तो इसमें यह हानि है कि किसी प्रकार भी पूरे वृक्ष का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि एक भाग प्रत्यक्ष है और दूसरा अनुमेय है। और प्रत्यक्ष और अनुमेय तो कई प्रकार का वस्तु है और एक अवयवी कई विशेषणों वाले हो नहीं सकते। प्रश्न- यदि हम ऐसा मानें कि एक देश के प्रत्यक्ष से दूसरे का अनमान होना सम्भव है, तो उसमें क्या हानि होगी? इसका उत्तर महात्मा गौतम जी देते हैं -

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