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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Anhwik

Shlok

सूत्र :नार्थविशेषप्राबल्यात् II2/1/27
सूत्र संख्या :27

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : उपरोक्त हेतु का उत्तर यह है कि इसमें व्याघात नहीं है आत्मा और मन का संयोग ज्ञान का कारण है, इसमें व्यभिचार नहीं होते। न होने का कारण क्या है? खास विषयों की विशेषता से तात्पर्य यह है कि ऊंची आवाज के सुनने से सोया हुआ या किसी काम में फंसा हुआ मन फौरन जाग उठता है, इससे इन्द्रिय आरै अर्थ के सम्बन्ध को प्रधान कहा जाता है। ज्ञान बिना मन के नहीं हुआ, किन्तु इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से, इसके स्थान में कि मन इन्द्रिय को जानने की ताकत दे, इन्द्रिय ने मन को जगाकर जानने की ताकत दी। इसलिए इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध को प्रधन कथन करने से आत्मा और मन के सम्बन्ध का खण्डन नहीं हुआ। अर्थ का बल वाला होना इन्द्रिय को प्रधान बना देता है। और निर्बल होने में मन प्रधान होता है। दोनों के पृथक कारण से उत्पत्ति के कारण से व्याघात नहीं हैं। और विशेषाथं का बलवान होना इन्द्रियों का विषय है, मन और आत्मा का विषय नहीं। इस वास्ते इन्द्रिय और अर्थ का संयोग ही प्रधान कारण है, क्योंकि संकल्प न होने पर भी सोये हुए अथवा किसी विषय में फंसे हुए मन को इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के कारण ज्ञान हो जाता है। यद्यपि उसमें मन का साथ मिलना भी एक कारण है, किन्तु इन्द्रिय और अर्थ के संयोग होते ही मन और आत्मा में त्रिया होने लगती है। इस वास्ते आत्मा और इन्द्रिय और अर्थ का संयोग उस त्रिया का कारण होता है यद्यपि बिना आत्मा और मन के संयोग के ज्ञान का उत्पन्न होना असम्भव हैं। तो भी विशेष अर्थ होने से इसके स्थान में, कि मन इन्द्रियों को काम में लगाता, इन्द्रियों ने मन को काम में लगाया, इसलिए इन्द्रियों को प्रधान मानकर प्रयक्ष इन्द्रिय और अर्थ के संयोग से भी कथन किया गया। अब इस पर विपक्षी दूसरे प्रकार के हेतु देने प्रारम्भ करते हे।