सूत्र :व्याहतत्वादहेतुः II2/1/26
सूत्र संख्या :26
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यह कहना ठीक नहीं कि प्रत्यक्ष में इन्द्रियां प्रधान हैं। क्योंकि यदि आत्मा और मन का सम्बन्ध ज्ञान का कारण न माना जाये, केवल इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से ही ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाये, तो एक काल में दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न न होना जो मन का लक्षण कहा है नष्ट हो जायेगा। क्योंकि मन के लक्षणनुसार इन्द्रियार्थ के सम्बन्ध को मन के सम्बन्ध की आवश्यकता है। वरन् एक काल में सब इन्द्रियों के अर्थों का ज्ञान होना सम्भव है इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान में भी मन और आत्मा के सम्बन्ध को शामिल करना चाहिए। अथवा इस सूत्र का यह मतलब लेना चाहिए कि जब किसी एक कार्य में मन उकाग्र होता है यथा किसी अच्छे गान के सुनने में या और किसी प्रकार में, तो शेष इन्द्रियां उस समय भी विषयों से सम्बन्ध रखती हैं। यदि इन्द्रियों के कारण ज्ञान होता तो उस अवस्था में भी इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान होना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। अतएव यह सिद्धान्त कि प्रत्यक्ष ज्ञान में इन्द्रियां प्रधान हैं। खण्डन हो जाता है और यह लक्षण भी नष्ट हो जाता है, कि इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसका उत्तर महात्मा गौतम जी देते हैं।