DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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Darshan

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सूत्र :तद-यौगपद्यलिङ्गत्वाच्च न मनसः II2/1/24
सूत्र संख्या :24

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिस प्रकार ज्ञान का आत्मा के लिंग होने से आत्मा के कथन करने की आवश्यकता नहीं इसी तरह पर मन के बिना भी बहुत से ज्ञानों का एक साथ होना आवश्यक था। किन्तु यह दृष्टि में नहीं आता, कि एक साथ बहुत सी वस्तुओं का ज्ञान हो जाये इस वास्ते प्रत्येक ज्ञान के साथ जो त्रम से प्रतीत होता है। मन का सम्बन्ध आवश्यक प्रतीत होता है। और जिसका संयोग आवश्यक हो उसके कथन करने की कोई आवश्यकता नहीं।

व्याख्या :
प्रश्न- मन का सम्बन्ध ज्ञान के साथ आवश्यक मानने में क्या प्रमाण है? उत्तर- चूंकि पांचों ज्ञान इन्द्रियां प्रत्येक समय पर एक साथ काम करती हैं। किन्तु ज्ञान एक साथ नहीं होता, यदि इन्द्रिय और अर्थों के सम्बन्ध से ही ज्ञान होता तो सब विषयों का एक साथ ही ज्ञान होता, जिसका न होना बतला रहा है कि जिस इनिद्रय के साथ मन का सम्बन्ध होता है उसको उसका ज्ञान होता है। जिसके साथ मन का सम्बन्ध नहीं होता है उसको उसका ज्ञान होता है। जिसके साथ मन का सम्बन्ध नहीं होता उसके अर्थ का ज्ञान भी नहीं होता अर्थात् अर्थ का ज्ञान होना मन और इन्द्रिय के सम्बन्ध पर ही है। जबकि मन के बिना इन्द्रिय अर्थ का ज्ञान कर ही नहीं सकती तो मन ज्ञान का कारण आवश्यक हुआ। प्रश्न- क्या केवल आवश्यक होने के कारण ही आत्मा और मन का कथन प्रत्यक्ष के लक्षणों में नहीं है। उत्तर- यही कारण नहीं, किन्तु लक्षण उसको कहते हैं जो बिना उसके दूसरे में नहीं घट सके आत्मा और मन प्रत्येक ज्ञान के कारण हैं। अथवा वह प्रत्यक्ष से हो, अनुमान या उपमान से अथवा शब्द से। तात्पर्य यह है कि हर एक प्रमाण से होने वाले ज्ञान से आत्मा और मन का सम्बन्ध है और इन्द्रियों का केवल प्रत्यक्ष ज्ञान से। इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान का कारण इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होना ठीक था। क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ इन्द्रिय और अर्थें का सम्बन्ध विशेषतया है। विशेषता यह है कि मन अपने विचार में मग्न होता है कि यकायक विद्युत की कड़कड़ाहट धोत्र द्वारा मन को चौंका देती है। ऐसी अवस्था में आत्मा जानने की इच्छा से मन को नहीं लगाता किन्तु इन्द्रियों के सम्बन्ध से मन और आत्मा को ज्ञान होता है। इस कारण से प्रत्यक्ष में आत्मा और मन बड़ा नहीं, किन्तु इन्द्रिय ही समझनी चाहिए। प्रश्न-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध के प्रधान होने में क्या प्रमाण है?

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