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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :प्रत्यक्षलक्षणानुपपत्तिरस-मग्रवचनात् II2/1/20
सूत्र संख्या :20

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : चूंकि प्रत्यक्ष के लक्षण में पूरे तौर पर बयान नहीं किया गया अतएव प्रत्यक्ष का जो लक्षण कहा है वह ठीक नहीं हो सकता। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रत्यक्ष के लक्षण में क्या हानि है। तो उत्तर प्राप्त हुआ कि उसका पूरा कारण नहीं कथन किया गया, क्योंकि प्रत्यक्ष का लक्षण यह किया है कि जब इनिद्रयार्थ से ज्ञान उत्पन्न हो वह प्रत्यक्ष कहलाएगा। परन्तु केवल इन्द्रियार्थ के कारण से कोई ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। किन्तु ज्ञान इस तरह पर उत्पन्न होता है कि आत्मा का सम्बन्ध मन से होता है और मन का सम्बन्ध इन्द्रियों से और इन्द्रियों का सम्बन्ध वस्तुओं से होता है। जबकि ज्ञान के लिए आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थों का सम्बन्ध और इससे कोई ज्ञान उत्पन्न होना सम्भव नहीं। अतएव यह लक्षण असम्पमर्ण है और जो लक्षण असम्पूर्ण हो वह लक्षण ठीक नहीं कहला सकता, इस वास्ते प्रत्यक्ष का लक्षण बिल्कुल ठीक नहीं है।

व्याख्या :
प्रश्न- क्या इन्द्रियार्थ से ज्ञान नहीं हो सकता, यदि मान लिया जाये तो हानि होगी? उत्त- पहले बतला दिया गया कि प्रभाता अर्थात् जानने वाला प्रमाण अर्थात् जानने का कारण प्रमेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु से प्रमित अर्थात् ठीक ज्ञान उत्पन्न होता है। जब तुम प्रभाता अर्थात् जानने को न मान कर केवल प्रमाण और प्रमेय से ज्ञान का उत्पन्न होना मानोगे, तो ठीक जानने वाला ही नहीं। प्रश्न- यदि हम आत्मा, इन्द्रिय अर्थ से ज्ञान की उत्पति माने लें और मन को मानें तो क्या हानि है? उत्तर-एस अवस्था में एक एक ही समय में सब इन्द्रियों के अर्थ का ज्ञान होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता। इस वास्ते मन का सम्बन्ध होना आवश्यक है। बस यह लक्षण प्रत्यक्ष का ठीक नहीं इस पर और हेतु देते हैं।