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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

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सूत्र :न प्रदीपप्रकाशसिद्धिवत्तत्सिद्धेः II2/1/19
सूत्र संख्या :19

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : महात्मा गौतम जी इस सूत्र में दीपक को उदाहरण देकर इस बात का फैसला करते हैं, कि जिस तरह बिना दीपक के चक्षु किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं और दीपक के वास्ते आंख को किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं और दीपक के न होने का ज्ञान प्रकाश के होने से हो जाता है। जब दीपक उपस्थित होता तब आंख प्रत्येक वस्तु को देखती है। और जब नहीं होता नहीं देखती। इस तरह पर आंख के देखने से दीपक के होने न होने का अनुमान होता है और प्राप्त उपदेश से भी पता लगता है। जहां अन्धकार हो वहो दीपक जलाकर वस्तुओं को मालूम करो। इस तरह प्रत्यक्षादि द्वारा जिन चीजों का ज्ञान से प्रत्यक्ष होने का अनुभव किया जाता है और इन्द्रियार्थ निमित्त से जो सुख-दुःख का प्रभाव इनके द्वारा आत्मा तक पहुंचता है उससे मालूम हो सकता है जिस तरह प्रकाश दूसरी वस्तुओं के देखने का कारण परिमित होता है। इसी तरह प्रमेय रूप पदार्थ जानने का कारण होने की अवस्था में प्रमाण और प्रमेय की ठीक व्यवस्था को प्राप्त करता है अर्थात् उसमें दोनों गुण अपेक्षा से पाए जाते हैं। जिसके जानने का वह कारण है उसके वास्ते वह प्रमाण है। जो उसके जानने का कारण है उसके लिए वह प्रमेय है। बस, यही प्रमाणादि के जानने का उपाय है।

व्याख्या :
प्रश्न-यदि प्रमाण से ही प्रमाण का ज्ञान होना मानोगे तो प्रभाता, प्रमाण और प्रमेय का काम ये नहीं रहेगा। उत्तर- वस्तुओं की विरूद्धता से प्रत्याक्षादि को उन्ही प्रत्याक्षादि को उन्हीं प्रत्याक्षादि से प्राप्त होना नहीं कहा गया जब एक प्रत्यक्ष को मालूम करने वाला दूसरी प्रकार का प्रत्यक्ष है। तो पृथकता उपस्थित है। ऐसी अवस्था में भेद क्यों नहीं रहेगा। प्रश्न-संसार में देखा जाता है, कि एक वस्तु से किसी दूसरी वस्तु को देखते हैं। और प्रत्यक्ष कोई दूसरी वस्तु नहीं जिससे प्रत्यक्ष को मालूम कर सके। उत्तर- वस्तुओं की पृथक्ता से उनके साधन भी पृथक्-पृथक् हैं। यथा रूप देखने के वास्ते चक्षु प्रमाण है। और शब्द सुनने के लिए श्रोत्र इसी तरह प्रत्यक्ष अनेक प्रकार का है। अतएव एक वस्तु से दूसरी के मालूम होने में कोई विरूद्धता नहीं हो सकती। यही अवस्था अनुमानादि प्रमाणों की है। यथा कुए में से निकले हुए जल को खारा या मीठा मालूम कर लेते हैं। इसी तरह जानने वाले आत्मा का ज्ञान होता है। जैसे यह विचार करके, कि मैं दुखी हूं अथवा सुखी हूं। यहाँ पर जानने वाले ही से जानने वाले आत्मा का ज्ञान होता है। और एक ही समय में मन दो प्रकार का ज्ञान न होने से मन का अनुमान होता है। क्योंकि एक काल में दो ज्ञान का न होना मनका लक्षण है। महात्मा गौतम जी प्रत्यक्षादि प्रमाणों की परीक्षा करके अव खास तौर पर पृथक्-पृथक् प्रमाणों की परीक्षा करते हैं। चूँकि प्रमाणों में लक्षण करते समय प्रथम प्रत्यक्ष का ही लक्षण कहा था अब परीक्षा भी प्रथम प्रत्यक्ष की करते हैं। यह पूर्व पक्ष का सूत्र है।