DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :तत्प्रामाण्ये वा न सर्वप्रमाणविप्रतिषेधः II2/1/14
सूत्र संख्या :14

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यदि इस खण्डन को, कि प्रत्यक्षादि प्रमाण नहीं है। प्रमाण देकर परिमित किया जाये तो खण्डन के वास्ते प्रमाण के मिल जाने से खण्डन का मूल प्रमाण पर जा रहेगा। और जिस खण्डन का मूल प्रमाण पर हो वह प्रमाण के नष्ट होने पर किसी प्रकार भी स्थित नहीं रह सकता। जब खण्डन स्थित न रहा तो विपक्षी का कुल पक्ष ही नष्ट हो गया।

व्याख्या :
प्रश्न -तुमने विपक्षों की युक्ति का खण्डन करके प्रमाणों को सिद्ध कर दिया, परन्तु प्रमाण की सत्ता में कोई युक्ति नहीं दी .............. उत्तर - यदि किसी वस्तु के खण्डन में जो युक्तियां उपस्थित की जायें और वह असत्य सिद्ध हो जायें। तो विपक्षी का पक्ष स्थित रहता है। प्रश्न - यद्यपि विरुद्धयुक्तियों के खण्डन से विपक्षी का पक्ष स्थित रहता है। परन्तु उसके सत्य होने में फिर भी संशय रहता है। जब तक कि विपक्षी अपने पक्ष के प्रतिपादन में अपनी युक्तियां उपस्थित न करे। अतएव जब तक प्रमाणों की सत्ता के सत्य होने में युक्तियां न मिल जायें, तब तक पक्ष सिद्ध नहीं कहा जा सकता। उत्तर - जो मनुष्य किसी विषय के खण्डन में युक्तियां उपस्थित करे। यदि वह युक्तियां असिद्ध हो जायें, तो निग्रह स्थान में आ जाता है। उसकी तो हक नहीं रहता, परन्तु आगे इस विषय पर और भी युक्तियां उपस्थित होंगी।

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