सूत्र :प्रमेया च तुलाप्रामाण्यवत् II2/1/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रमाण की परीक्षा के समय उसका प्रमेय होना तुला के प्रमाण की तरह है जिस प्रत्येक वस्तु के भार करने में कांटे कौर बांट प्रमाण समझे जाते हैं, किन्तु तुला और बांट का भार मालूम करना होता है अर्थात् इस संशय के होने पर कि इस बाट का भार ठीक है अथवा नहीं। उसके प्रमाण के वास्ते दूसरे प्रमाण की आवश्यकता होती है, अर्थात् दूसरे बांट से भार करने के बिना उस बांट का भार ठीक होना साफ तौर पर मालूम नहीं हो सकता। परन्तु इसके वास्ते कौन प्रमाण होता है। उन्हीं प्रमेय में से कोई प्रमेय ही उसके भार करने के वास्ते प्रमाण बन जाता है। अतएव प्रत्येक प्रमाण और प्रमेय समझाना चाहिये, कि जब वह ज्ञान का कारण होगा तब प्रमाण कहलाएगा और जब ज्ञान का विषय होगा तब प्रमेय कहलाएगा। आत्मा ज्ञान का विषय होने से प्रमेय में गिना जाता है परन्तु स्वतन्त्र होने से वह प्रमाता कहा जाता है और ज्ञान बाहरी वस्तुओं के जानने के कारण होने से प्रमाण कहलाता है और ज्ञान का विषय होने से प्रमेय भी होता है और प्रमाण और प्रमेय से पृथक होने से ठीक-ठीक ज्ञान कहाता है। अतएव प्रत्येक अवसर पर जैसा विशेष गुणों से प्रतीत हो वैसा ही समझना चाहिए। इसी प्रकार कारक शब्द का भी फैसला होता है।
व्याख्या :
यथा - वृक्ष खड़ा हैं, वृक्ष के खड़े होने में दूसरा सहायता करने वाला नहीं किन्तु खड़े होने में स्वतंत्र हैं, इसी वास्ते कत्र्ता समझा जाता है। क्योंकि स्वतन्त्रता से किया करने वाले को कर्ता कहते हैं। वृक्ष को देखता। यहां चक्षु के द्वारा देखने योग्य वस्तु होने से वृक्ष कर्म है। वृक्ष से चन्द्रमा को देखने में देखने का कारण होने से कारण कहलाता है।
प्रश्न - कारण किसे कहते है ?
उत्तर - जो कर्ता का कम्र्म करने में सहायक हो वह कारण कहलाता हैं।
प्रश्न - सम्प्रदान किसे कहते हैं ?
उत्तर -जिसके वास्ते कोई कर्म किया जावे वह सम्प्रदान कहलाता है।
वृक्ष से पत्ता गिरता है इस स्थान पर वृक्ष उपादान हैं।
प्रश्न - उपादान किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो किसी वस्तु के पृथक् हो जाने से निश्चल बना रहे उसे उपादान कहते हैं।
वृक्ष में जन्तु है। इस स्थान पर वृृक्ष उन जन्तुओं का आधार है। जो किसी वस्तु का आधार हो उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इस प्रकार विचारने से मालूम होता है कि न तो प्रत्येक द्रव्य ही कारक है किन्तु खास प्रकार की क्रिया अर्थात् कर्मवान कर्म का कारण कारक है।
इस तरह छः कारकों को समझ लेना चाहिए।
प्रश्न -छः कारक कौन से हैं ?
उत्तर -(1) कर्ता, (2) कर्म, (3) करण, (4) सम्प्रदाय, (5)उपादान, (6) अधिकरण।
प्रश्न - यह किस प्रकार मान लिया जावे, कि एक ही वस्तु प्रमाण भी हो जावे और प्रमेय भी हो सके।
उत्तर - यह तो प्रत्यक्ष ही है, कि एक ही मनुष्य अपने पिता के विचार से पुत्र और अपने पुत्र के विचार से पिता कहा जाता है। इसी प्रकार प्रमाण और प्रमेय होते हैं।
प्रश्न - जिस समय प्रमाण की परीक्षा करते है वह उस समय प्रमेय हो जाता हैं, तो उस समय प्रमाण का धर्म उसमें रहता है अथवा नहीं ? यदि कहो कि रहता है, तो एक ही वस्तु में प्रमाण और प्रमेय का धर्म किस प्रकार रह सकता हैं, तो एक ही वस्तु में प्रमाण और प्रमेय का धर्म किस प्रकार रह सकता है, यदि कहो नहीं रहता तो वस्तु की सत्ता में उसका धर्म किस प्रकार नष्ट हो सकता है।
उत्तर - जिस प्रकार एक सेर बाट छटांक से बड़ा और पनसेरी से छोटा है। अब सेर में छटांक से बड़ाई और पनसेरी से छोटाई स्थित है अथवा नहीं। यद्यपि बहुत कम जानने वाले मनुष्य कहने लगेगें कि बड़ाई और छोटाई दो हठ विषयक विशेषण एक में किस प्रकार रह सकते हैं परन्तु यहां हठ नहीं, जो हठ होने के कारण असम्भव हो जावें। यदि एक ही वस्तु से बड़ा छोटा कहा जावे तो हठ हो जाती है परन्तु जहां किसी से छोटा किसी से बड़ा कहा जावे। वहां अपेक्षा होती है हठ नहीं होती। जिस तरह छोटाई-बड़ाई अपेक्षा से एक सेर में रह सकती है इसी तरह प्रमाण और प्रमेय का धर्म एक वस्तु में रह सकता है। क्योंकि जिस समय पर जिसके वास्ते यह प्रमाण हैं, उसके वास्ते प्रमेय उस समय पर नहीं हैं।
प्रश्न-प्रत्यक्षादि उस किस प्रकार जाने जाते हैं?
उत्तर- प्रत्यक्षादि इस प्रकार मालूम होते हैं जैसेमैं प्रत्यक्ष सेजानता हूं अर्थात् मैंने अपनी इन्द्रियों से मालूम किया है अथवा अनुमान से जानता हूं अथवा उपमान से जानता हूं। अथवा शास्त्र से मालूम काता है। मेरा ज्ञान प्रत्यक्ष से है, अनुभाव से है अथवा उपमान से, वा शास्त्रों से उत्पन्न हुआ है। इस तरह पर खास ज्ञान से उनके कारण का ज्ञान हो जाता है। जैसे जो ज्ञान इन्द्रियार्थ से उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं अब इस ज्ञान का कारण इन्द्रिय है इस तरह एक प्रमाण का परिमित होना सम्भव है।
प्रश्न- यदि प्रमाण के लिए प्रमाण परिमित किया जावे तो उसमें क्या हानि है?