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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :त्रैकाल्या-प्रतिषेधश्च शब्दादातोद्यसिद्धिवत्तत्सिद्धेः II2/1/15
सूत्र संख्या :15

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : तीनों काल में होने का जो खण्डन किया गया वह बिना युक्तियों के है। जैसा कि प्रथम यह हो चुका है कि प्राप्त होने का कारण और जो वस्तु मालूम हों। इन दोनों में से किसी एक का कहीं दूसरे से प्रथम और कही पश्चात् और किसी जगह एक साथ होना सिद्ध होने से और कोई खास नियम न होने के कारण जहां जैसा हो वहां वैसा ही कथन करना चाहिए। इसका उदाहरण पहले दे चुके हैं। यहां केवल नमूने के तौर पर बयान किया है कि शब्द से बाजों की सिद्धि होने के माफिक प्रमाण की सिद्धि होने से तीनों काल में होने का खण्डन होना असम्भव है। क्योंकि किसी समय बीन, सितारादि वाद्यों की आवाज के द्वारा अनुमान किया जाता है। उस समय वाद्य जानने योग्य वस्तु और शब्द जानने का कारण होता है। ऐसे ही पूर्व सिद्ध प्रमेय अर्थात् मालूमात के पश्चात् उत्पन्न होने वाले प्रमाणों के द्वारा सिद्धि देखी जाती है। इसमें तीनों काल में प्रमाण होने का पक्ष बिना युक्ति हैं। इसके बोध से यह पता लगता है कि यदि वाद्य किसी मकान में बज रहा हो जहां से हमको दृष्टिगोचर न हो, तो उसका ज्ञान आवाज से ही हो सकता है। बिना आवाज के उसका ज्ञान नहीं हो सकता और आवाज के होते ही यह मालूम होने लगता है कि ‘बीन’ बज रही है या ‘बांसुरी’ बज रही है। अब बासुँरी बीन के मालूम होने के कारण आवाज प्रमाण है। अथवा चक्षु श्रोत नासिकादि से प्रमेय का ज्ञान होता है अतएव प्रमाण को पश्चात् सिद्धहोने में जो युक्ति दी गई थी। सो प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि न होगी। इस युक्ति से जो तीनों काल में न होना सिद्ध किया गया। वह ठीक नहीं एक ही वस्तु जिस समय किसी को प्राप्त हो तब प्रमाण कहलाती है। और जब जानने योग्य हो तब प्रमेय कहलाती है इसका उदाहरण अगले सूत्र में बयान किया जाता है।

व्याख्या :
प्रश्न - उपरोक्त सूत्रों में एक प्रकार का चक्र सा पाया जाता है। जिससे सत्य वार्ता का पता लगाना कठिन प्रतीत होता है। क्योंकि यदि प्रमाणों का खण्डन ठीक मान लिया जावे तो खण्डन के सत्य या असत्य होने का प्रमाण नहीं मिल सकता। यदि उसको असत्य माना जावे तो प्रमाणों के द्वारा प्रमाणों को मालूम करना आवश्यक प्रतीत होता है। क्योंकि प्रमाण जब सत्य माने जावेंगे तो प्रमेय अथवा सत्य का कारण ही समझ कर उन्हें माना जावेगा। तो प्रमाणों के मालूम करने के वास्ते यह जरूरी और दूसरे कारणों की तलाश भी आवश्यक होगी। और उनका प्रमाणों से पृथक होना आवश्यक है। क्योंकि इन प्रमाणों के शून्य होने की परीक्षा की जावेगी। उस समय यह प्रमाण तो प्रमेय हो जावेंगे। और कोई प्रमेय बिना प्रमाण के सिद्ध न हो सकेगा यही नियम माना जावे तो प्रमाण किस प्रकार प्रमाणित होगें। यदि यह कहा जावे कि इनमें से जो एक की परीक्षा करेंगे और दूसरा उसके वास्ते कारण हो जावेगा तो प्रमाणों की सिद्धि में अन्योन्याश्रय होगा। जिससे किसी एक का स्थित होना कठिन हो जायेगा। उत्तर - यदि नियमानुसार दृष्टि की जावे तो कुछ भी कठिन नहीं। क्योंकि हमारे सामने बहुत से उदाहरण उपस्थित हैं। यथा पिता और पुत्र में जब किसी को पिता कहा जावेगा, तो उसके वास्ते पुत्र का होना आवश्यक होगा और जब पुत्र कहा जावेगा, तो पिता का होना आवश्यक है। बिना पुत्र के होने के कोई पिता नहीं कहला सकता। और बिना पिता के कोई पुत्र नहीं हो सकता। इससे साफ प्रतीत होता है, कि यह बातें आवश्यक है और जिस बात का प्रमाण प्राकृतिक नियमों से मिल जावे। वह कभी असत्य नहीं हो सकती। अतएव प्रत्येक हेतु के वास्ते उदाहरण का होना आवश्यक होगा। और जिस पक्ष के वास्ते युक्ति और उदाहरण दोनों प्राप्त हों उसको किसी प्रकार भी असिद्ध कहना ठीक नहीं और युक्ति की असिद्धता भी उदाहरण से प्रतीत हो जाती है। इस पर एक उदाहरण देकर समझाते हैं।