सूत्र :सर्वप्रमाणप्रतिषेधाच्च प्रतिषेधानुपपत्तिः II2/1/13
सूत्र संख्या :13
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि प्रमाणों का खण्डन असत्य माना जाये तो खण्डन होना अंसभव है। खण्डन के सत्य और असत्य होने में किसी न किसी प्रमाण की आवश्यकता है, जब प्रत्येक प्रमाण की सत्ता नष्ट हो गई तो उस खण्डन को सत्य परिमित करने के लिए कोई प्रमाण ही नहीं। अथवा सत्य का प्रमाण न मिलने से खंडन स्वयंमेव असिद्धहो गया।
व्याख्या :
प्रश्न - खण्डन क्यों असिद्ध होगा, सम्भव है कि सिद्ध हो, क्योंकि सत्यासत्य के वास्ते प्रमाण आवश्यक है, उसका असिद्ध कह देना किस प्रकार सत्य हो सकता है।
उत्तर -प्रमाण की आवश्यकता भाव अर्थात् सत्ता के परिमित करने के लिए होती है, शून्य के वास्ते नहीं। जो खण्डन करने वाला विपक्षी है, उसका कार्य है कि खण्डन को परिमित कर ले और जब तक खण्डन का पक्ष परिमित न हो जाये, तब तक वह स्थायी रूप से स्थिर ही नहीं और प्रमाणों का खण्डन परिमित न हुआ तो प्रमाण परिमित हो गये।
प्रश्न - यदि प्रमाण के खण्डन में प्रमाण न होने से उसकी सत्ता परिमित नहीं होती और प्रत्येक वस्तु की सत्ता के वास्ते प्रमाण की आवश्यकता हो, तदापि प्रमाण का खण्डन हो जायेगा। क्योंकि प्रमाण को भी अपनी सत्ता के वास्ते द्वितीय प्रमाण की आवश्यकता हैं। और द्वितीय प्रमाण को तृतीय प्रमाण की एवमेव यह प्रंसग अनन्त हो जायेगा। यदि यह कथन किया जाये कि प्रमाणके वास्ते किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, तो तुम्हारा सिद्धान्त नष्ट हो गया कि प्रत्येक वस्तु की सत्ता बिना प्रमाण के विश्वास रूप नहीं हो सकती। जब आपके प्रमाण को ही प्रमाण की आवश्यकता है, और तुम उसको बिना प्रमाण सिद्ध जानते हो तो यह सिद्धान्त ठीक न रहा कि प्रत्येक सत्ता के लिए प्रमाण की आवश्यकता है। जब यह सिद्धान्त ठीक न रहा तो प्रमाणों का खंडन ठीक है।
उत्तर - प्रत्येक वस्तु की मूल होती है। परन्तु मूल की मूल नहीं होती, अतएव मूल सर्वदा बिना मूल के मानी जाती है। चक्षु प्रत्येक वस्तु के रूप कोदेखती है, परन्तु चक्षु के देखने के वास्ते किसी द्वितीय चक्षु की आवश्यकता नहीं। परन्तु चक्षु का प्रतिबिम्ब किसी दूसरी वस्तु में चक्षु ही से देखा जाता है। अतएव प्रमाण के प्रामाणिक करने के लिए किसी द्वितीय प्रमाण की आवश्यकता नहीं, किन्तु स्वंयमेव सिद्ध है। प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को देखने के वास्ते चक्षु की आवश्यकता है। और बिना चक्षु के रूप का ज्ञान होना सम्भव नहीं, परन्तु चक्षु स्ंवयमेव द्वितीय चक्षु बिना स्वप्रतिबिम्ब के द्वारा अपने रूप को देखती है। एवमेव प्रमाण का परिमित होना प्रमेय ज्ञान के द्वारा हो जाता है। किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। अतएव न सिद्धान्त का खण्डन होता है और न ही अनवस्था होती है। आगे चलकर प्रमाणों के प्रमाणित करने के वास्ते एक और युक्ति उपस्थित करते है।