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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

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सूत्र :युगपत्सिद्धौ प्रत्यर्थनियतत्वात्क्रमवृत्तित्वाभावो बुद्धीनाम् II2/1/11
सूत्र संख्या :11

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यदि ऐसा मानोगे कि एक ही समय में प्रमाण और प्रमेय दोनों का ज्ञान हो जावेगा, तो यह सत्य है। क्योंकि मन का यह लक्षण है कि उसमें एक काल में दो ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकते अर्थात् ज्ञान नियत कर्मवृत्ति अर्थात् प्रसंग वार हुआ करती है। एक ही साथ दो ज्ञान का होना असम्भव है। तो तुम्हारा यह विचार किस तरह सत्य हो सकता है कि प्रमाण और प्रमेय का ज्ञान युगपत् हो जावेगा। उपरोक्त इन तीनों युक्तियों के द्वारा विपक्षी ने यह परिमित कर दिया कि प्रत्यक्ष प्रमाणों का किसी प्रकार भी परिमित होना सम्भव नहीं। अतएव उनकी सत्ता का होना सत्य ही नहीं। अतः जिस प्रमेय के लिए प्रमाण की आवश्यकता थी, उसके साथ तीनों काल में प्रमाण का विषय परिमित नहीं हो सकता। जिसका विषय तीनों काल में परिमित न हो उसके होने का क्या प्रमाण है। विपक्षी के इस वाद का उत्तर अगले सूत्र में देते हैं, उपरोक्त चार सूत्र पूर्व पक्ष अर्थात् विपक्षी की ओर से है। और उसका उत्तर महात्मा गौतम जी की ओर से यहां कुछ प्रश्नोत्तर लिखे जाते हैं, जिससे कि तात्पर्य पूरा निकल आवे।

व्याख्या :
प्रश्न - क्यों मन में एक काल में दो ज्ञान की उत्पत्ति न मान ली जावे ? उत्तर - मन बहुत ही सूक्ष्म अर्थात् अणु है उसमें एक काल में दो ही ज्ञान का होना सम्भव नहीं, उसका बहु विचार मन की परीक्षा के समय पर उल्लिखित किया जायेगा। प्रश्न - हम एक काल में दो ज्ञान उत्पन्न होते देखते है अर्थात् किसी शब्द के सुनने से उस शब्द का और उसके अर्थों का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। जिसके साथ-साथ होने में कोई संशय नहीं क्योंकि उसमें काल का कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होता। उत्तर - यह वार्ता सत्य नहीं है। क्योंकि काल के सूक्ष्म प्रवाह को प्रत्येक जन बोध कर सकता, जिससे एक निमेष को प्रत्येक मनुष्य समय का बहुत लघु भाग विचार करता है। उसमें साठ पल एक दूसरे के पश्चात् व्यतीत हो जाते है। अतएव एक ही काल नहीं कहला सकता, अतः शब्द के श्रोत में जाने के पश्चात् उसके अर्थों का ज्ञान होता है। द्वितीय यह उदाहरण ठीक नहीं, क्योंकि दो ज्ञान नहीं, किन्तु शब्दार्थ सम्बन्ध से दोनों का ज्ञान एक ही कहना ठीक है। प्रश्न -शब्द और अर्थ दो पृथक-पृथक वस्तु है। अतएव इनका ज्ञान भी पृथक-पृथक होगा क्योंकि बहुत से मूर्ख मनुष्य शब्द सुन कर भी अर्थ के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते है। यदि शब्दार्थ होते तो जिसको शब्द का ज्ञान होता तो उसको अर्थ का बोध होना आवश्यक था परन्तु ऐसा बहुत स्थानों पर नहीं होता, जिससे शब्दार्थ का पृथक होना परिमित होता है। अतएव शब्दार्थ का ज्ञान दो वस्तुओं का ज्ञान है। उत्तर - आपके इस कथन से साफ प्रतीत हो गया कि मूर्ख मनुष्यों को शब्द के साथ अर्थ का ज्ञान नहीं होता जिससे एक काल में दो वस्तुओं का ज्ञान नहीं हुआ और जानने वाले को शब्द के सुनने के पश्चात् उसके जाने हुए अर्थ की स्मृति होती है। अतएव एक काल में दो ज्ञान नहीं होते, इसका उत्तर महात्मा गौतम जी यह देते है।