सूत्र :पश्चात्सिद्धौ न प्रमाणेभ्यः प्रमेयसिद्धिः II2/1/10
सूत्र संख्या :10
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि यह मान लोगे कि प्रमेय के पश्चात् हम प्रत्यक्ष प्रमाण के ज्ञान को मानेगे तो प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान न होगा किन्तु प्रमेय ज्ञान के लिए ऐसे प्रमाण की जरूरत ही नहीं, क्योंकि प्रमाण की आवश्यकता केवल प्रमेय के ज्ञान के लिए है। जब प्रमेय का ज्ञान बिना प्रमाण के हो गया तो अब प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है। क्योंकि जिस वस्तु के ज्ञान के वास्ते प्रमाण की आवश्यकता थी, उस वस्तु का ज्ञान प्रथम ही हो गया। इस वास्ते यह कथन बिल्कुल ठीक नहीं है कि प्रमेय ज्ञान के बाद प्रत्यक्ष प्रमाण उत्पन्न हो जायेगा। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि प्रमाण उत्पन्न हो जायेगा। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि प्रमाण से प्रमेय का ज्ञान होना नहीं मानतें, किन्तु प्रमाण केवल प्रमेय ज्ञान के दृढ़ करने के लिए हैं, तो यह कहना सरासर असत्य होगा। अतः प्रीति अर्थात् वस्तु की योग्यता को जानने वाले शास्त्र का नाम प्रमाण है। और बिना अस्त्र के किसी मनुष्य को किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता। और बिना अस्त्र के ज्ञान की उत्पत्ति मानने से प्रज्ञा चक्षु को रूप का ज्ञान होतव्य हैं। यदि कथन करो कि उसको बिना चक्षु के रूप का ज्ञान नहीं हो सकता तो बिना शास्त्र के ज्ञान का न होना परिमित हो गया। जब बिना शास्त्र के प्रमाता अर्थात् जीवात्मा को किसी प्रमेय का ज्ञान होना सम्भव नहीं तो प्रमेय ज्ञान के पश्चात् प्रमाण की सत्ता को अनुभव करना बिल्कुल असत्य है, अतएव प्रमेय ज्ञान के पश्चात् भी प्रमाण का ज्ञान होना असम्भव है।
प्रश्न - हम एक काल में प्रमाण और प्रमेय दोनों का ज्ञान होना मानते है। इसमें किस पक्ष को उटाओगे ?