DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :त्रैकाल्यासिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः II2/1/12
सूत्र संख्या :12

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : तीनों काल में परिमित न होने से आपका खण्डन करना परिमित नहीं हो सकता, क्योंकि खण्डन तीन अवस्थाओं के सिवाय और नियप् से होना असम्भव है। या तो प्रमाण ज्ञान से प्रथम उसका खण्डन होगा अथवा प्रमाण ज्ञान के सहित अथवा प्रमाण ज्ञान के पश्चात् अब तीनों अवस्थाओं में खण्डन सत्य नहीं, क्योंकि यदि यह कथन किया जाये कि प्रमाण ज्ञान के प्रथम उसका खण्डन करेंगे तो बिल्कुल असत्य है, क्योंकि किसी वस्तु के पश्चात् उसका खण्डन हो सकता है, क्योंकि जिस वस्तु का ज्ञान ही नहीं उसकी सत्ता का कोई प्रमाण नहीं और जिसकी सत्ता का ज्ञान नहीं उसका खण्डन होना असंभव है। यदिकथन करो कि प्रमाण की सत्ता के ज्ञान के पश्चात् उसका खण्डन करेंगे तो भी ठीक नहीं क्योंकि जिस वस्तु की सत्ता का पूरा ज्ञान हो जाये, उसका खण्डन किसी प्रकार भी होना सम्भव नहीं। यदि कहो कि एक काल में प्रमाण और उसकी सत्ता का खण्डन होगा तो यहां फिर वो ही तुम्हारी विरुद्धयुक्ति उपस्थित हो जायेगी। अतएव आपकी यह युक्ति कि तीनों काल में परिमित न होने से प्रत्यक्षादि प्रमाण नहीं हैं, बिल्कुल असत्य हैं। क्योंकि तुम्हारा खण्डन भी तीनों काल में परिमित नहीं होता, जिससे पूरा मिलता हैं, कि युक्ति असिद्ध है। क्योंकि इसकी सत्ता पूरे तात्पर्य के स्थान में स्वसत्ता को परिमित नहीं कर सकती। इसके खण्डन में महात्मा गौतम आगे और युक्ति उपस्थित करते हैं।

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