DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :यथोक्ताध्यवसायादेव तद्विशेषापेक्षात्संशयेनासंशयो नात्यन्तसंशयो वा II2/1/6
सूत्र संख्या :6

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : संशय की उत्पत्ति का न होना अथवा उसकी सत्ता का खण्डन किसी प्रकार भी होना सम्भव नहीं क्योंकि केवल समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण का ज्ञान होना ही संशय का कारण नहीं यदि विपक्षी यह कहे कि आपके पास क्या प्रमाण है कि केवल समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण ही संशय का कारण नहीं तो उसका उत्तर महात्मा गौतम जी ने यह दिया है कि जिस सूत्र संख्या 23 में समान धर्म के ज्ञान को संशय का कारण माना है , उसमें केवल समान धर्म के ज्ञान अर्थात् प्रत्येक विशेषण के ज्ञान को संशय का कारण नहीं बतलाया किन्तु धर्म के ज्ञान और विशेष्य धर्म की अपेक्षा को अर्थात् प्रत्येक विशेषण के मालूम होने और नवीन विशेषण के प्रतीत करने की इच्छा होने का नाम संशय है और वह यावत् विशेष्य धर्म अर्थात् नवीन विशेषण का ज्ञान न हो जावे तावत् प्रत्येक विशेषण के ज्ञान होने के पश्चात् भी स्थिर रहेगी और इसी का नाम संशय है अर्थात् प्रत्येक विशेषण तो पर्याप्त हैं और नवीन विशेषण के प्राप्त करने की इच्छा है।

व्याख्या :
प्रश्न-समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण के जानने की इच्छा क्यों नही होती, नवीन विशेषण के जानने की इच्छा क्यों नहीं होती, नवीन विशेषण के जानने की इच्छा क्यों होती है ? उत्तर-यावत समान धर्म का ज्ञान तो प्रत्यक्ष होने से प्रथम हो जाता है। तब विशेष्य धर्म के ज्ञान की इच्छा उत्पन्न होती है, क्योंकि जो वस्तु स्वसकाश में हो उसकी इच्छा नहीं उत्पन्न हो सकती, क्योंकि इच्छा प्राप्ति के अर्थ उत्पन्न होती है। और वह वस्तु प्रथम ही प्राप्त है। अतएव समान का ज्ञान होना कहा गया है। पुनः उसके बोध की इच्छा क्यों होगी ? प्रश्न-क्या समान धर्म संशय अर्थात् संदेह का कारण नहीं ? उत्तर-समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण संशय का कारण नहीं, किन्तु प्रत्येक विशेषण का ज्ञान और नूतन विशेषण के जानने की इच्छा संशय का कारण है। प्रश्न-पुनः लक्षण करते समय ऐसा क्यों नहीं कहा ? उत्तर-विशेष्य की अपेक्षा अर्थात् बोध की आवश्यकता के कथन से यह वृत्तान्त प्राप्त हो जाता है। प्रश्न - समान धर्म के ज्ञान में तो आपने यह युक्ति उपस्थित की, परन्तु विप्रतिपत्ति से संशय का निषेष अर्थात् खण्डन किया है, उसका क्या उत्तर है? उत्तर - जब दो मनुष्य एक विषय पर विवाद करते है तो श्रोता को यह विचार उत्पन्न होता है कि यह प्रत्येक युक्तियाँ तो मैं सुन रहा हूँ परन्तु कोई नूतन युक्ति जिससे सत्य-असत्य का प्रमाण प्राप्त हो मुझे परयाप्त करनी चाहिए। अस्तु यह नूतन युक्ति के प्राप्त करने की आवश्यकता ही संशय होने का प्रमाण है। और जो यह कथन किया गया कि “न्यायधीश“ को दो मनुष्यों की विप्रति पत्ति से उस वस्तु के तत्व विषयक शंका उत्पन्न नहीं होती, इसका कारण यह है कि उसको समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण का ज्ञान और विशेष्य धर्म के जानने की इच्छा नहीं होती यदि यह होती तो शंका का उत्पन्न होना आवश्यक था। संशय की उत्पति तृतीय कारण अव्यवस्था अर्थात् सशंकित ज्ञान का जो मिटाया गया उसका उत्तर यह है कि यह जो विपक्षी ने कथन किया है, उसका उत्तर यह है कि दो विप्रतिपत्ति पक्षी मनुष्यों की युक्तियों की युक्तियों को श्रोता सुनता है और यह विचार करता है कि इसके तत्व विषयक नूतन युक्ति को नहीं जानता, जिससे दोनों में से एक के विचार भी संशय है विप्रतिपत्ति के होने से दूर नहीं हो सकता। अतएव शंका की सत्ता प्रत्येक प्रकार से प्रमाणित है। और सर्वपरीक्षकों को परीक्षा से इसका प्रमाण प्राप्त हो सकता है। प्रश्न - संशय किसको कहते हैं? उत्तर - अल्पज्ञ जीवात्मा को। प्रश्न - संशय का यथार्थ कारण क्या है? उत्तर - जीवात्मा की अल्पज्ञता ही संशय का यथार्थ कारण है। प्रश्न -यदि संशय के अस्तित्व को न माना जावे तो क्या हानि उत्पन्न होती है? उत्तर - यदि संशय अर्थात् शंका की सत्ता ही संसार में न होती तो मनुष्य शब्द का सार्थक अर्थ यथार्थ न होता क्योंकि मनुष्य का अर्थ परीक्षक का है और जब तक संशय न हो, तब तक परीक्षा का होना असम्भव हैं। प्रश्न -संशय के होने का प्रमाण क्या है ?

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