सूत्र :तथात्यन्तसंशयस्तद्धर्मसातत्योपपत्तेः II2/1/5
सूत्र संख्या :5
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इसी तरह संशय उत्पन्न करने वाले समान धर्म के प्रत्येक समय ज्ञान होने से संशय नष्ट नहीं हो सकेगा अर्थात् सर्वदा नैमित्तिक बना ही रहेगा क्योंकि जिस कपोल कल्पना को तुम मानते हो कि समान धर्म के ज्ञान से संशय अर्थात् संदेह पैदा होता है उस समान धर्म को सर्वदा स्थित रहने से संशय का हमेशा रहना सम्भव प्रतीत होता है। कुतः कोई वस्तु समान धर्म से रिक्त नहीं होती और न कभी किसी को ऐसा विचार होता है कि यह धर्म अर्थात् विशेष्य समान धर्म अर्थात् प्रत्येक विशेषण से रहित है। किन्तु समान धर्म सहित ही विशेष्य का ज्ञान प्रत्येक विशेषण के सहित होता है। यहां तक विपक्षी ने संशय अर्थात् संदेह के प्रत्येक कारण पर जिनका वर्णन प्रथम अध्याय के सूत्र 23 में आया था युक्तियां देकर उनसे संशय की उत्पत्ति का खण्डन करके संशय की सत्ता का निषेध अर्थात् शून्य परिमित किया , अब अगले सूत्र में उनमें उन पाक्षिक युक्तियों का उत्तर दिया जायेगा।