DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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Darshan

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सूत्र :अव्यवस्थात्मनि व्यवस्थितत्वाच्चाव्यवस्थायाः II2/1/4
सूत्र संख्या :4

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : मन में किसी वस्तु के तत्व विषयक सांदेहिक विचारों के स्थित होने या न होने से भी संशय उत्पन्न नहीं होता, अर्थात् किसी वस्तु की सत्ता का सांदेहिक ज्ञान व शून्य का सांदेहिक ज्ञान संशय के उत्पन्न होने का कारण नहीं। संशय के लक्षण में दो प्रकार की अव्यवस्था अर्थात् सांदेहिक ज्ञान को संशय के उत्पन्न होने का कारण बतलाया था। इस सूत्र में उसका निषेध अर्थात् खण्डन विपक्षी की तरफ से किया गया। विपक्षी उसके लिए यह युक्ति उपस्थित करता है कि ऐसा माना जावे कि यह सांदेहिक ज्ञान आत्मा के स्वरूप में स्थित है। तो वह सांदेहिक ज्ञान नहीं कहला सकता, क्योंकि अव्यवस्था अर्थात् सांदेहिक ज्ञान सर्वदा बदलता रहता है। यदि ऐसा मानें कि सांदेहिक ज्ञान आत्मा के स्वरूप में स्थित नहीं, तो उसका होना ही प्रमाणित नहीं होता और जिस सांदेहिक ज्ञान को संदेह का कारण माना था, उसके न होने से संदेह का शून्य होना प्रमाणित हो गया । वस्तुतः वार्ता यह है कि सांदेहिक ज्ञान को उनके स्वरूप में ठीक मानने से संशय की उत्पत्ति का सांदेहिक ज्ञान से होना असम्भव है। यदि सांदेहिक ज्ञान को स्वसत्ता में भी संशयजनक माना जावे तो प्रथम उसको शून्य मानना पड़ेगा , जिससे कि वह किसी का कारण होना सम्भव नहीं द्वितीय आन्तरतम प्राप्त होगा कि संदेह का कारण सांदेहिक ज्ञान और उसका कारण संशय इसी तरह अनन्त कम होगा । अतएव अव्यवस्था अर्थात् संदेह का कारण नहीं हो सकता, अब तृतीय कारण समान धर्म के प्रसंग में विवाद करते हैं।

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