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दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :तद्वि- कल्पाज्जातिनिग्रहस्थानबहुत्वम् II1/2/61
सूत्र संख्या :61

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : उनके विरोध के कारण से अर्थात् साधर्म्य और वैधर्म्य के बहुत प्रकार की है भाव यह है कि हर एक वस्तु में बहुत प्रकार के होने से और युक्तियों के विरोध से निग्रह स्थान और जाति बहुत से गुण ऐसे है। जो दूसरों से मिलते हैं और बहुत से गुणों में प्रतिकूल्य होता है। इस विभाग के कारण जाति बहुत प्रकार की है। जैसे मनुष्य और पशुओं में प्राणित्व रूप गुण समान है परन्तु पशुबुद्धि शून्य प्राणी है। और मनुष्य बुद्धि युक्त प्राणी है। इसलिए पहले प्राणी होने के कारण दोनों प्राणी जाति में परिगणित हुए । फिर बुद्धि के कारण प्राणी बुद्धिमान और पशु निर्बुद्धि हो गए। इसी प्रकार पशुओं के अनेक प्रकार हो जाते है। अब निग्रह स्थानों का भी यही हाल है।

व्याख्या :
इनका अधिक विस्तार पाँचवे अध्याय में आयगा। यहाँ तक महात्मा गौतम जी ने सौलह पदार्थों का उद्धेश्य और उनके लक्षण साधारण रूप से बतलाये। अर्थात् पहले यह बतलाया कि प्रमाणदि सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से मुक्ति होती है। फिर बतलाया प्रमाण चार प्रकार का है और प्रमेय बारह प्रकार का है। अर्थात् इस अध्याय में जानने के योग्य हर एक पदार्थ का वर्णन तो आ गया । अब उनकी परीक्षा की जायगी। जिससे हर एक मनुष्य को पूरा ज्ञान हो जावे कि जो लक्षण महात्मा गौतम ने पदार्थों का किया है वह ठीक है। क्योंकि गौतम जी का सिद्धान्त यह है कि बिना परीक्षा किए किसी बात को नहीं मानना चाहिए। अब यदि स्वयं वे अपने शास्त्र में केवल लक्षण ही वर्णन कर देते और उसकी परीक्षा न करते तो उन पर सिद्धान्त के विपरीत चलने का दोषारोपण होता इसलिए उन्होंने अच्छी प्रकार से हर एक लक्षण और उद्धेश्य की समीक्षा करना आवश्यक समझा जिसका मूल्य अगले अध्यायों से प्रतीत होगा। इति द्वितीय आह्निकः इति प्रथमोऽध्यायः न्याय दर्शन के उर्दू तजुमें के हिन्दी अनुवाद का पहला अध्याय पूरा हुआ। ओ३म् ब्रह्मणे नमः । ओ३म् नमो ब्रह्मणे।।

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