सूत्र :विप्रतिप-त्त्यव्यवस्थाध्यवसायाच्च II2/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : केवल वस्तु की ठीक-ठीक व्यवस्था (परिणाम) न निकलने में संशय नहीं होता और नहीं विप्रति -पत्ति (विरूद्ध मति) से भी संशय नहीं होता ।
व्याख्या :
प्रश्न-प्रश्न में तो इसका वर्णन नहीं कि इन कारणों से ही संशय नहीं होता- तुमने क्योंकर यह मान लिया कि इन कारणों से संशय नहीं होता ?
उत्तर-अतः इस सूत्र में पिछले सूत्र का ही निरास है अतः पूर्व सूत्र से यह अनुवृत्ति आती है। अर्थात् पिछले सूत्र से इतना विषय इस सूत्र में भी लेना चाहिए-अतः सूत्र का तात्पर्य यह है कि विरूद्ध सम्मति जैसे कोई मानता है-कि आत्मा है -और दूसरा यह मानता है कि आत्मा नहीं है। इस विचार के सुनने से किसी प्रकार का संशय होना सम्भव नहीं क्योंकि जिसके अपने दिल में दो विरूद्ध विचार हों उसे संशय हो सकता है। दूसरे पुरूषों की सम्मति के विरोध से किसी प्रकार संशय नहीं हो सकता। द्वितीय-किसी वस्तु के ज्ञात अथवा अज्ञात होने के कारण से भी संशय नहीं उपजता। अर्थात् ऐसे विचार होने को कि इसका ज्ञात होना प्रामाणिक नहीं होता। इससे भी संशय नहीं होता। इन तीनों बातों को संशय का कारण न मानने में अगले सूत्र में भिन्न-भिन्न कारण पर अनुसन्धान करते हैं। पहले कारण अर्थात् ‘सम्मति विरोध’ विषय में यह सूत्र है।