सूत्र :विप्रतिपत्तौ च सम्प्रतिपत्तेः II2/1/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सम्मति विरोध से उस रचयिता (मुसन्निफ) को जिसको उसका ज्ञान है संशय नहीं हो सकता। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व सूत्र में मति वैपरीत्यादि को सर्वाश से संशय का कारण नहीं माना। अब उसको सविस्तार वर्णन करते हैं। यथा-एक विवाद के निर्णायक को उसको दोनों वादियों के मति विरोध का ज्ञान हो चुका है कभी सन्देह नहीं होता। क्योंकि वह वास्तविक सिद्धांत को जानता है। यदि कोई पुरूष यह कहे कि जिस पुरूष को उस मन्तव्य का ठीक ज्ञान नहीं उसको तो अवश्य ही सम्मति वैपरीत्य में संशय उत्पन्न हो जायगा। परन्तु यह विचार ठीक नहीं जिसको सत्य ज्ञान नहीं है। उसको पूर्व से ही सन्देह है। मति विरोध के श्रवण से संशय है। उत्पन्न नहीं हुआ-इसलिए विप्रतिपत्ति दोनों प्रकार के मनुष्यों के विचार में संशय संशय उत्पादन नहीं कर सकती। क्योंकि जो नैयायिक वास्तविक तात्पर्य को जानता है और वादियों ने अपने -अपने हेतुओं को सुनाकर उसको नया करने के लिए नियत किया है। उसको तो ठीक ज्ञान है मति विपय्र्य का वृतान्त उसे पूर्व ज्ञात है। अतः उसे संशय उत्पन्न होना सम्भव नहीं। और जो पुरूष तत्व से अनभिज्ञ है उसे पहले ही से संशय है-उसको भी विप्रतिपत्ति संशय का कारण नहीं हो सकती। क्योंकि मनुष्य दो ही प्रकार के हो सकते हैं एक वह जो सत्य को जानता हो। और दूसरे वे जिनको सत्य का ज्ञान न हों।
व्याख्या :
प्रश्न-जब तुम यह मानते हो कि अनभिज्ञ को तो पहले सन्देह है ही तुम्हारे सन्देह की सत्ता से निषेध करना सर्वथा व्यर्थ है। क्योंकि जिसकी सत्ता को तुमने स्वयं अगींकार कर लिया। उससे निषेध कैसा ।
उत्तर- मैंने स्वंय के भाव अथवा अभाव की प्रतिज्ञा नहीं की-किन्तु विप्रतिपत्ति के संशय का कारण होने से निषेध किया है। हमारे इस सूत्र की बहस (विवाद) का भाव यह है कि विप्रतिपत्ति किसी से मन में संशय उत्पन्न नहीं कर सकती ।
प्रश्न- तुम्हारे शब्दों से संशय की सत्ता का पता मिलता है-उसका कारण विप्रतिपत्ति हो या और कोई।
उत्तर-जबकि कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता तो संशय के कारणों से उसकी उत्पत्ति न होने पर संशय की सत्ता स्वयंमेव नष्ट हो जायगी अतः दूसरे कारण की भी परीक्षा करके खण्डन करते हैं।