सूत्र :समानानेकधर्माध्यवसायादन्यतरधर्माध्यवसायाद्वा न संशयः II2/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : ।। ओ३म्।।
।। न्याय दर्शनम् ।।
।। अथ द्वितीयोध्यायः प्रारभ्यते ।।
प्रश्न-परीक्षा किस प्रकार की जाती है ? और महात्मा गौतम जी ने प्रमाण तथा प्रमेय की परीक्षा को आगे के लिए छोड़कर प्रथम ‘संशय’ की परीक्षा को क्यों आवश्यक समझा क्योंकि -जैसा उद्धेश्य और लक्षण क्रमशः कहे गये थे उसी क्रम से परीक्षा होनी चाहिए थी-
उत्तर-संशय के उत्पन्न हुए बिना परीक्षा हो नहीं सकती अतः सबसे पूर्व संशय की परीक्षा करना आवश्यक है।
प्रश्न-परीक्षा करने के लिए वस्तु की सत्ता में सन्देह होता है या उसके लक्षणों में ?
उत्तर-उद्धेश्य और लक्षण दोनों की परीक्षा की गई है इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वस्तु की सत्ता में भी सन्देह हो सकता है और उसके लक्षण के विषय में भी “युक्त है या अयुक्त है ?” सन्देह हो सकता है परीक्षा से दोनों प्रकार के सन्देहों को दूर करना अभीष्ट है।
प्रश्न-हर वस्तु की सत्ता की प्रामाणिकता उस (वस्तु) के लक्षण की सत्ता के प्रामाणिकत्व पर निर्भर है क्योंकि ‘गुणी’ गुणों के समुदाय का नाम है और लक्षण में स्वाभाविक गुणों का ही वर्णन होता है यदि गुणों की सत्ता (सिद्धि) न हो तो गुणी की सत्ता (सिद्धि) ही नहीं हो सकती अतः केवल लक्षण की परीक्षा से उसकी परीक्षा हो सकती है।
अर्थ-‘संशय की परीक्षा के लिए पूर्व पक्ष का वर्णन करते हैं।
(संशय प्रति पादक सूत्र)
दो प्रकार के विश्वासों (?) में वर्तमान साधारण धर्मों के ठीक ज्ञान होने से सन्देह नहीं हो सकता- अथवा साधारण रूप से किसी पदार्थ के गुणों में समता(एकता) जानने से और यह विचार होने से इन दोनो पदार्थों में बहुत से गुण मिलते हैं और उनके गुणों को प्रत्यक्ष देखने से गुणी के ज्ञान में सन्देह नहीं होता । समान उसे कहते हैं जिसमें बहुत से धर्म मिलते हों और किसी एक गुण में विरोध हो - समान शब्द के उच्चारण से भिन्नता प्रकट होती हो जाती है। जिससे सन्देह का होना सम्भव नहीं। जब यह प्रतीत हो जायगा कि यह दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं। केवल कतिपय अंशो में गुणों की समता है तो दोनों पदार्थों के पृथक-पृथक जान लेने से एक में दूसरे का सन्देह नहीं होता। यथा रूप और स्पर्श दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। जब दोनों का पृथक-पृथक ज्ञान हो जाएगा तो एक में दूसरे का सन्देह नहीं हो सकता क्योंकि सन्देह उस दशा में होता है जब कि पदार्थ में दूसरे पदार्थ के होने का भी संदेह हो जब दो पदार्थों का ज्ञान एक में न हो उस समय संशय उत्पन्न नहीं होता-इसके खण्डन के लिए एक और हेतु देते हैं यह भी पूर्व पक्ष का ही सूत्र है।