सूत्र :प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् II5/2/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन होने पर उसका समाधान न करके किसी दूसरी प्रतिज्ञा को कर बैठना प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान कहलाता हैं। जैसे वादी ने यह प्रतिज्ञा की कि इन्द्रिय का विषय होने से शब्द अनित्य है। इसका प्रतिवादी ने खण्डन किया कि जाति इन्द्रिय का विषय होने से नित्य हैं। इसके उत्तर में यह कहना कि जाति इन्द्रिय का विषय होने पर भी सर्वगत होने से नित्य हैं, परन्तु घट और शब्द सर्वगत नहीं, इसलिए वे अनित्य हैं। इस कथन में प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान होता है। क्योंकि पहली प्रतिज्ञा यह थी कि शब्द अनित्य हैं, उसे सिद्ध न करके वादी ने अब दूसरी प्रतिज्ञा और कर दी कि शब्द सर्वगत नहीं, प्रतिज्ञा के साधक हेतु या दृष्टान्त होते हैं न कि प्रतिज्ञा, इसलिए यह प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान हैं।
अब प्रतिज्ञा विरोध का लक्षण कहते हैं: