सूत्र :प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः II5/2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अपने पक्ष के विरुद्ध प्रतिवादी जो हेतु या दृष्टान्त देता हैं, उसको स्वीकार कर लेना प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान है क्योंकि परपक्ष को स्वीकार करना मानो अपने पक्ष को त्याग देना हैं। जैसे वादी ने प्रतिज्ञा की कि इन्द्रिय का विषय होने से घट के समान शब्द अनित्य है। इस पर प्रतिवादी हैं कि सामान्य जाति भी इन्द्रिय का विषय हैं और वह नित्य हैं, ऐसे ही शब्द भी नित्य हो सकता है। इस पर वादी कहने लगे कि यदि इन्द्रिय का विषय जाति नित्य हैं तो शब्द भी नित्य होगा। यहां वादी ने प्रतिवादी के पक्ष को स्वीकार कर लिया और अपने पक्ष को त्याग दिया इसी को प्रतिज्ञज्ञहानि कहते हैं।
अब प्रतिज्ञान्तर का लक्षण कहते हैं: