सूत्र :स्वपक्षलक्षणापेक्षोपपत्त्युपसंहारे हेतुनिर्देशे परपक्षदोषा- भ्युपगमात्समानो दोषः II5/1/43
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अपने पक्ष को सिद्ध न करके प्रतिवादी के आक्षेप का खण्डन करने से दोनों पक्ष असिद्ध रहते हैं। इसलिए जब कोई प्रतिवादी हमारे पक्ष में दूषण दे तो हमारा कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम अपने पक्ष में उस दोष का न होना सिद्ध करें। यदि हम उस दूषण का उद्धार किए बिना प्रतिवादी के दिये हुए दोष में दोष निकालने लगें तो मानो हमने उसके बतलाये हुए दोष का अपने पक्ष में होना स्वीकार कर लिया। जिससे दोनों पक्ष असिद्ध रहे। प्रतिपक्षी के दिए हुए दूषण का उद्धार न करके उसके दूषण में दूषण निकालना मतानुज्ञा निग्रह स्थान कहलाता है। जैसे किसी को किसी ने चोरी का दोष लगाया, अब यदि वह उसका निवारण न करके दोष लगाने वाले को भी चोर सिद्ध करने लगे तो ऐसा करने से चाहे वह अपने विपक्षी का चोर सिद्ध कर दे परन्तु उसके अपने दोष का निवारण नहीं हो सकता। अपने दोष का निवारण तो तभी होगा, जबकि वह अपने पर लगाये अपबाद की असारता प्रमाणों से सिद्ध करेगा।
पञ्चमाध्यायस्य प्रथमममाहिन्क समाप्तम्