सूत्र :प्रति-षेधेऽपि समानो दोषः II5/1/39
सूत्र संख्या :39
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : खण्डन में भी वही दोष है। यदि अनेकान्त होने से कार्यसम अयुक्त हैं, तो उसका खण्डन भी एकान्त न होने से प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि वह किसी का खण्डन करता है और किसी का मण्डन। शब्द को अनित्य मानकर प्रयत्न के पश्चात् उत्पत्ति मानी गई है और अनित्य मानकर अभिव्यक्ति। दोनों में विशेष हेतु का अभाव है।
टब सर्वत्र इस दोष की अतिव्याप्ति दिखलाते हैं:-