DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :मिथ्योपलब्धेर्विनाशस्तत्त्वज्ञानात्स्व-प्नविषयाभिमानप्रणाशवत् प्रतिबोधे II4/2/35
सूत्र संख्या :35

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिस प्रकार जागृदवस्था में स्वप्न का अभिमान नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के होने पर मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है।

व्याख्या :
प्रश्न- मिथ्या ज्ञान किसे कहते हैं? उत्तर- जैसे दूर से स्थाणु को देखकर यह भ्रम होता है कि यह पुरूष है वा क्या? ऐसे ही वस्तु कुछ और हो और उसको समझना कुछ और जाये, इस को मिथ्या ज्ञान कहते हैं। प्रश्न- तत्त्वज्ञान किसे कहते हैं? उत्तर- जो पदार्थ जैसा हो, उनको वैसा ही जान लेना तत्त्वज्ञान कहलाता हैं, स्थाणु को स्थाणु और पुरूष को पुरूष समझना यही तत्त्वज्ञान है। कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता, किन्तु उसका तत्त्वज्ञान होने से मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। जैसे बालू को देखकर जो जल का ज्ञान हुआ था, यथार्थ ज्ञान होने पर बालू नष्ट हो जाती, किन्तु उसको जो भ्रम से पानी समझ लिया था, यह मिथ्या ज्ञान नहीं रहता। इसी प्रकार जागृत में पदार्थ या उनके संस्कार नष्ट नहीं होते किन्तु स्वप्नविषय उनका मिथ्याभिमान दूर हो जाता है। अब मिथ्या ज्ञान की सत्ता सिद्ध करते हैं-

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