DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :स्मृति-संकल्पवच्च स्वप्नविषयाभिमानः II4/2/34
सूत्र संख्या :34

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिन कारणों से स्मृति और संकल्प उत्पन्न होते हैं, उन्ही कारणों से स्वप्नाभिवान ही होता है, अर्थात् जिन पदार्थों का पहले ज्ञान हो चुका हो उनके संस्कार मन में विद्धमान होने से स्वप्न में उनका भान होता है, जो वस्तु दृष्टा या श्रुत न हो, उसका स्वप्न में भी भान नहीं होता यहां दृष्ट से अभिप्राय ज्ञात से है। ज्ञात पदार्थों को जब स्वप्न में बाह्य शरीर और इन्द्रिय काम करने से रूक जाते हैं, सूक्ष्म शरीर और मन उनको स्मरण करता है, यही स्वप्न कहलाता है। यदि स्वप्न और जागरण में कुछ भेद न होता तो स्वप्नाभिमान कहना बन ही नहीं सकता था। तात्पर्य यह कि जैसे स्मृति और संकल्प पूर्वज्ञात विषयों को सिद्ध करते हैं, ऐसे ही स्वप्नाभिमान भी जागृत के अनुभूत विषयों का स्मारक और साधक है।

व्याख्या :
प्रश्न- हम प्रायः स्वप्न में अपना शिर कटा हुआ और अपने को आकाश में उड़ता हुआ देखते हैं। यह हमारा पहले देखा हुआ या सुना हुआ कब है? उत्तर- हमने दूसरों के शिर कटे हुए और पक्षी आकाश में उड़ते हुए देखे या सुने हैं। इनके संस्कार हमारे मन में भरे हुए होते हैं। स्वप्न में इन्द्रियों का अर्थों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान नहीं होता, किन्तु केवल मानसिक ज्ञान होता हैंऔर मन उस समय विकल्पवृत्ति के अधीन होकर उनको यथेच्छ रचना करने लगता है, अन्य के धर्म को अन्य में आरोप करने लगता है। अतएव स्वप्न भी एक प्रकार की स्मृति है, चाहे वह मिथ्या और बनावटी हो। भ्रान्ति का निरोध किस प्रकार हो सकता हैः

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