सूत्र :हेत्वभावादसिद्धिः II4/2/33
सूत्र संख्या :33
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इस प्रतिज्ञा के लिए कि स्वप्नपदार्थ कल्पित हैं, कोई हेतु नहीं है और बिना हेतु के प्रतिज्ञा करने से कोई बात सिद्ध नहीं होती। यदि यह हेतु दिया जाये कि जागृत अवस्था में उनके अभाव से उनका मिथ्या होना सिद्ध होता है, तो जागृदवस्था के विषयों का भाव मानना पड़ेगा, जिससे बाह्य पदार्थों का भाव सिद्ध होगा। जब बाह्य सिद्ध हो गये तो उन्ही का प्रतिबिम्ब स्वप्नपदार्थ भी है (चाहे वे भ्रम से कुछ का कुछ दीखें) यदि कहा जाये कि जागृदवस्था के पदार्थ भी मिथ्या हैं तो स्वप्नपदार्थों का खण्डन नहीं हो सकता। क्योंकि जागृदवस्था को सत्य मानकर स्वप्नावस्था का असत्य होना कहा जाता है, जब जागृतदवस्था ही मिथ्या फिर स्वप्नाव्स्था का मिथ्या होना किसकी अपेक्षा से मानते हो। किसी वस्तु के भाव से उसके अभाव का ज्ञान होता है जैसे बैल के श्रृंग से मनुष्य के श्रृंग का अभाव कहा जाता है। यदि किसी के सींग होते ही नहीं, तो उनको हेतु में रखकर कौन मनुष्य के सींगों का अभाव सिद्ध करता। स्वप्न में जो मिथ्या ज्ञान होता है, उसका कोई कारण होना चाहिए। जब उसका कारण जागृत का ज्ञान है तो फिर वह कल्पित कहां रहां। अतएव जब स्वप्नाभिमान ही निर्मूल नहीं, तो फिर प्रमाण प्रमेयाभिमान कैसे होता है, इसको दिखलाते हैं-