DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा II1/2/44
सूत्र संख्या :44

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : विवाद जब इस प्रकार का हो कि कोई पक्षी अपना कोई सिद्धान्त न रक्खे परन्तु अन्य के पक्ष का खण्डन करना ही अपना काम समझे तो उसे वितण्डा कहते हैं और इस प्रकार की वार्ता से वस्तु का यथार्थ ज्ञान कभी नहीं हो सकता ।

व्याख्या :
प्रश्न-क्या वितण्डा करने से पदार्थ तत्व का यथात्मय बोध नहीं हो सकता । उत्तर-न तो इस प्रकार विवाद करने वालों का यह उद्धेश्य होता है कि हमें तत्व की वास्तविक दशा का ज्ञान हो और न ही इस उपाय से इच्छा पूर्ण हो सकती है , क्योंकि तत्वानुसन्धान उभय पक्ष स्थापना द्वारा हो सकता है जिस प्रकार तुला के दोनों पलडों से तो हर वस्तु की तोल जानी जा सकती है किन्तु एक पलड़े से कभी तोल मालूम नहीं हो सकती। वितण्डा करने वाले किसी वस्तु के यथार्थ रूप को सिद्ध करने के वास्ते समुद्यत नहीं होते, प्रत्युत प्रतिपक्षी के पक्ष की कुट्टी करना ही उनका उद्द्धेश्य होता है। प्रश्न-हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

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