सूत्र :अनैकान्तिकः सव्यभिचारः II1/2/46
सूत्र संख्या :46
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सव्यभिचार उसे कहते हैं जो एक स्थान पर स्थिर न रहे, प्रतिज्ञा की सिद्धि के लिए ऐसा हेतु देना जो प्रतिज्ञा को छोड़कर और स्थान पर भी चला जाए सो व्यभिचारी कहलाता है जैसे किसी ने कहा कि शब्द नित्य है, जब प्रमाण पूछा तो बोला कि स्पर्शाभाववान होने से दृष्टान्त में कहा कि क्योंकि अनित्य (घाट) घड़े में स्पर्शवत्व देखते हैं, अब नित्यत्व सिद्धि के लिए जो स्पर्शाभाववाद हेतु है यह व्याभिचारी है क्योंकि विरूद्ध चीजों में भी पाया जाता है, जैसे कि दुःख-सुख स्पर्शाभाव वाले होने पर भी अनित्य हैं और परमाण स्पर्शवान होने पर भी नित्य है। अतएव ऐसे हेतु को सव्यभिचार हेत्वाभास कहते हैं। यस्मात् आत्मादि नित्य होने पर भी स्पर्शवाले नहीं और सुख-दुखादि अनित्य होने पर भी स्पर्शवाले नहीं अतः स्पर्शाभाववत्व हेतु अनित्यत्व का साधक कभी नहीं हो सकता, एवं स्पर्शवत्व हेतु नित्यत्व का भी साधक नहीं हो सकता । जो हेतु पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों ही में पाया जाय वह हेतु ही नहीं परन्तु हेतु का आभास (प्रतिबिम्ब) है।
प्रश्न-विरूद्ध हेत्वाभास किसे कहते हैं ?