सूत्र :कालात्ययापदिष्टः कालातीतः II1/2/50
सूत्र संख्या :50
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस हेतु में काल का अन्तर हो जावे या काल का अभाव सिद्ध हो तो वह युक्ति ‘कालातीत’ कहलाती है। जैसे किसी ने कहा कि शब्द नित्य है और उसमें युक्ति यह दी कि जिस प्रकार नेत्र और प्रकाश के साथ सम्बन्ध होने से घट का प्रत्यक्ष होता है और प्रकाश के अभाव में घड़े का ज्ञान नहीं होता परन्तु प्रकाशाभाव काल में घड़ा अविद्यमान नहीं होता इसी प्रकार शब्द भी नित्य है। जब बाणी से बोलते हैं तब उसका प्रादुर्भाव होता है तदनन्तर नहीं । इस दलील से शब्द को नित्य सिद्ध किया, परन्तु यह युक्ति युक्त नहीं क्योंकि रूप का ज्ञान प्रकाश के साथ ही होता है परन्तु शब्द निकलने के पश्चात् कालान्तर में दूर के मनुष्यों को शब्द सुनाई देता है। इसलिए यह हेतु कालातीत हेत्वाभास है। क्योंकि जैसा शब्द दुन्दुभी और काष्ठ के संयोग से उत्पन्न होता है वैसा शब्द वियोग से उत्पन्न नहीं होता अतः शब्द संयोग काल में नहीं उत्पन्न होता परन्तु उस काल को अतीत करती है। कारण यह है कि कारण के होने से कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः उदाहरण में सादृश्य न होने से यह हेतु हेत्वाभास कहलाया, बहुत से लोग यह आक्षेप करते हैं कि अनुमान के अवयवों को उलटे प्रकार से आगे-पीछे वर्णन करने का नाम कालातीत है। परन्तु यह विचार ठीक नहीं क्योंकि जिसका जिसके साथ सम्बन्ध होता है दूर होने पर भी बना रहता है। चाहे मध्य में कोई अवरोध आ जावे परन्तु सम्बन्ध दूर नहीं हो सकता और जिनका वस्तुतः सम्बन्ध नहीं वह क्रमशः और निकट होने पर भी युक्त नहीं हो सकता । यदि दृष्टान्त और हेतु के मध्य में कोई अवयवान्तर आ जावे तो हेतु का हेतुत्व नष्ट नहीं हो सकता । अतः अवयवों को आगे-पीछे रखने से कालातीत हेत्वाभास नहीं हो सकता ।
प्रश्न-छल करना या धोखा देना किसे कहते हैं ?