DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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Darshan

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सूत्र :प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्ष-परिग्रहो वादः II1/2/42
सूत्र संख्या :42

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : एक पदार्थ के विरोधी धर्मों को लेकर प्रमाण-तर्क साधन और अशुद्धियां दिखलाने से तत्व के विरूद्ध न होकर पक्षादि (प्रतिज्ञादि वा ) अनुमान के पाच्चों अवयवों को लिए हुए जो प्रश्नोत्तर करना है उसे वाद कहते हैं जो पुरूष प्रमाण देने के बिना ही बात-चीत करता है वह वाद करना नहीं जानता जैसे किसी ने कहा आत्मा है प्रतिपक्षी कहता है कि आत्मा नहीं है अब इस पर दोनो ओर से प्रमाण और युक्ति द्वारा प्रश्नोत्तर करना ‘वाद‘ है परन्तु जहां भिन्न वस्तुओं में दो विरूद्ध धर्म वर्णन किये जायें वह वाद नहीं कहाती ।जैसे किसी ने कहा आत्मा नित्य है दूसरा कहता है शब्द अनित्य है- यस्मात् नित्यत्व और अनित्य दो भिन्न वस्तुओं में विद्यमान है अतः यहां पर वाद नहीं हो सकता क्योंकि एक वस्तु में परस्पर विरूद्ध दो धर्म नहीं रह सकते जहां दो दृष्टि पड़े-उनमें से एक ठीक होगा दूसरा असम्भव-असम्भव को सम्भव से पृथक करने के लिए वाद किया जाता है परन्तु भिन्न- भिन्न दो वस्तुओं में दो विरूद्ध धर्म रह सकते हैं । अतः वहां पर असम्भवता की सम्भवता नहीं वहां वाद की भी आवश्यकता नहीं ।

व्याख्या :
प्रश्न-सिद्धान्त के विरूद्ध न हो यह क्यों कहा ? उत्तर-अपने सिद्धान्त की अपेक्षा न कर उसके विरूद्ध जल्प वितण्डा हो जाता है वाद नहीं कहला सकता । प्रश्न-जल्प किसे कहते हैं ?

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