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दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः II1/2/48
सूत्र संख्या :48

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिस कारण से वस्तु की जिज्ञासा की आवश्यकता हो यदि उसी के सिद्ध करने में हेतु दिया जाय तो ‘प्रकरणसम’अर्थात् जिज्ञास्य के साधन में अस्वीकृत हेतु और उसके अनुरूप हेतु देना अर्थात् जिस वस्तु के सत्यत्व पर पूरा विश्वास न हो और विवाद का विषय भी वही वस्तु हो, उसी को हेतु के स्थान में देना ‘प्रकरणसम’ कहलाता है।

व्याख्या :
प्रश्न-प्रकरण किसे कहते हैं ? उत्तर-ऐसे विषय को जिसका अनुसन्धान करना उद्धेश्य हो और जिसके गुणों में परस्पर विरूद्ध मति होने के कारण एक प्रकार निश्चित ज्ञान न हो प्रत्युत संदेह हो और वह परीक्षा के प्रयोजन से उपस्थित होने पर प्रकरण कहलाता है। प्रश्न-चिन्ता किसे कहते हैं ? उत्तर-संदिग्ध विषय को संदेह शून्य बनाने की इच्छा से जो प्रश्नोत्तर किये जाते हैं, चाहे वे अपने ही मन में हों या दूसरे के साथ वह चिन्ता या विचार कहलाती है । अब प्रकरणसम का दृष्टान्त देते हैं , जैसे किसी ने कहा, शब्द अनित्य है और उसके अनित्य होने की युक्ति उत्पत्ति वाला होना और सादि तथा शान्त द्रव्य के गुणों का न होना है। अर्थात् जितनी वस्तुएं जन्य हैं सब नश्वर हैं, क्योंकि घट (घड़ा) आदि जन्य पदार्थ सब अनित्य हैं। यह प्रत्यक्ष प्रतीत होता है और इसके साथ ही यह विचार उत्पन्न होना कि जिस प्रकार आत्मादि आकृति शून्य पदार्थ नित्य हैं । शब्द भी आकृति रहित होने से नित्य हो सकता है अतः शब्द का नित्य या अनित्य न होना विवाद गोचर है और नित्यत्व की विशेषता को न मानना युक्ति नहीं किन्तु मिथ्या हेतु है। इसलिए जो हेतु दोनों ओर घट जावे वह प्रकरण सम कहलाता है। प्रश्न-साध्यसम हेत्वाभास किसे कहते हैं ?

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