सूत्र :तन्निमित्तं त्ववयव्यभिमानः II4/2/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : संकल्पकृत रूपादि विषय तो रागादि दोषों के साधारण कारण हैं परन्तु इनका विशेष कारण अबयवी का अभिमान है। ‘यह देह मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह पुज्ञ मेरा है इत्यादि भौतिक पदार्थों में जो ममत्व बुद्धि का होना है, यह अवयवी का अभिमान कहलाता है। जब तक यह अभिमान नहीं टूटता अर्थात् मनुष्य यह नहीं समझता कि ‘न मैं किसी हूं और न मेरा कोई है, यह यह सब सम्बन्ध कल्पित और क्षणिक है।’ तब तक राग द्वेष का बन्धन जिसमें संसारी पुरूष जकड़े हुए है, छूट नहीं सकता। इसलिए मुमुक्षु पुरूष को केवल बाह्य विषयों से उपरात होकर ही सन्तुष्ट न होना चाहिए, किन्तु इस अहंकार के कीड़े को शरीर से निकालकर फेंकना चाहिए, जो सारे शरीर में दोषां का विषय फैला देता है। अब अवयवी की परीक्षा करते हैं प्रथम सन्देह का कारण वतलाते हैं-