DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञानादहङ्कारनिवृत्तिः II4/2/1
सूत्र संख्या :1

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : अथ द्वितीयमान्हिकम् अपवर्ग की परीक्षा समाप्त हुई, अब दूसरे आन्हिक में तत्त्वज्ञान की परीक्षा आरम्भ की जाती हैं- शरीर से लेकर दुःख तक जो दश प्रमेय गिना आये हैं, उनकी उत्पत्ति दोषों तक होती है। जब तत्वज्ञान होता है, तब जीवात्मा को इनमें अहंकार नहीं रहता, अर्थात् मैं शरीर हूं या इन्द्रियादि का समुदाय हूं, यह भाव नहीं रहता, इसलिए शरीरादि की आवश्यकताओं को भी वह अपनी आवश्यकता न समझकर उनसे उदासीनहो जाता है अर्थात् उसे किसी सांसारि पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती। क्योंकि सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा शरीरादि के लिए है, आत्मा के लिए नहीं। शरीरादि में आत्मा बुद्धि रखता हुआ ही मनुष्य विषयों में अनुरक्त होता है। तत्वज्ञान से ज बवह यह जान लेता है कि न शरीराहद मेरे हैं और न मैं इनका हूं, तब उसका अहंकार मिट जाता है। अहंकार के मिट जाने से उसको शरीरोपगत सुख दुःखादि का अनुभव भी नहीं होता। यदि होता भी है तो वह उसको स्वाभाविक धर्मं समझकर उससे प्रसन्न या खिन्न नहीं होता। रागादि के कारण क्या है; जिनके मिथ्या ज्ञान से दोष उत्पन्न होते हैं-

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