सूत्र :पात्रचयान्तानुपपत्तेश्च फलाभावः II4/1/62
सूत्र संख्या :62
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सन्यासी के लिए आहवनीयादि तीनों अग्नियों के त्याग का श्रुति में उपदेश किया गया है अर्थात् सन्यासाश्रम में अग्निहोत्रादि नित्य कर्म के न करने से पाप नहीं होता। क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्मों का फल स्वर्ग है, सन्यासी को स्वर्गफल की कामना नहीं होती। इसलिए जिस फल की इच्छा ही नहीं उसके लिए बीज बोने की क्या आवश्यकता है? अतएव वीतराग मुमुक्षु के लिए ऋणादि बन्धन की कोई आवश्यकता नहीं।
व्याख्या :
प्रश्न- शास्त्र में यह जो कहा है कि बिना तीन ऋणों को चुकाये जो मोक्ष की आशा करता है, उसकी आशा कभी पूरी नहीं होती, इसकी क्या गति होगी?
उत्तर-सर्व साधारण के लिए सांसारिक कामनाओं में अनुरक्त है, शास्त्र की यह आज्ञा है, परन्तु संसार से विरक्त हो गए हैं और तीनों एषणाओं का जिन्होंने त्याग कर दिया है, निदा स्तुति, मानापमान और हर्ष शोक आदि द्वन्द्व जिन पर अपना अच्छा या बुरा प्रभाव नहीं डाल सकते, ऐसे तत्त्वदर्शी और आत्मज्ञ लोगों के लिए शास्त्र में निमय का अपवाद भी मौजूद है। अतएव ऐसे लोगों के लिए ऋणादि का बन्धन नहीं हैः अब क्लेशानुबन्ध का उत्तर देते हैं-