सूत्र :प्रधानशब्दानुपपत्तेर्गुणशब्देनानुवादो निन्दाप्रशंसोपपत्तेः II4/1/60
सूत्र संख्या :60
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : शास्त्र में जहां मनुष्य के ऊपर तीन ऋण बतलाये गये हैं, वहां ऋण शब्द का प्रयोग औपचारिक है। तात्पर्य यह है कि जैसे देव ऋण का चुकाना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है, ऐसे ही ऋण के तुल्य देव, ऋषि और पितरों की पूजा करना भी प्रत्येक मनुष्य का धर्म है। इन कर्मों की आवश्यकता और प्रशंसा जतलाने के लिए यहां गौणिक ऋण शब्द से अनुवाद किया गया है। इसलिए वे लोग जी पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा इन तीनों एषणाओं से निवृत्त हो गए हैं, (चाहे वे किसी आश्रम में हों) इन तीनों ऋणों के लिए बाध्य नहीं हो सकते। ऐसे लोगों के लिए शास्त्र यह भी आज्ञा देता है कि जिस दिन उनको वैराग्य उत्पन्न हो मोक्ष के लिए यत्न करें। अतएव ऋण विधायक वाक्यां के अर्थ वारपरक होने से मोक्ष का अभाव नहीं हो सकता। फिर इसी की पुष्टि करते हैं-