सूत्र :दुःखविकल्पे सुखाभिमानाच्च II4/1/58
सूत्र संख्या :58
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि कोई कहे कि सुख को भी दुःख समझना ठीक नहीं। सुख के लिए प्रयत्न करते हुए यदि कोई दुःख उत्पन्न होगा तो उसका भी उपाय हो सकता है, यह बुद्धिमत्ता नहीं कि दुःख की आशंका में सुख को भी त्याग दिया जावे। इसका उत्तर यह कि अविद्या के कारण लोग दुःख को ही सुख समझ रहे हैं, जब दुःख के कारण अधिक इकट्ठे हो जाते हैं, तब उनका उपाय भी कठिन हो जाता है। इसलिए बुद्धिमान को पहले ही साकचना चाहिए कि हम जिसको सुख मान रहे हैं, वास्तव में उसका परिणाम हमारे लिए दुःख जनक है। जब तक मनुष्य विवेक के शास्त्र से ममता की फांसी नहीं काटता, तब तक उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न नहीं होता और वैराग्य के अभाव में कोई सच्चे सुख का अधिकारी नहीं हो सकता। दुःख की परीक्षा समाप्त हुई, अब अपवर्ग (मोक्ष) की परीक्षा की जाती है।