सूत्र :बाधनानिर्वृत्तेर्वेदयतः पर्येषणदोषाद-प्रतिषेधः II4/1/57
सूत्र संख्या :57
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सुखार्थी मनुष्य जो सुख प्रवृत्त होता है, वह पयषण दोध से सुख को प्राप्त नहीं कर कर सकता। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य संसार में कुछ न कुछ दुःख अवश्य रखता है। चाहे अविद्या के मद में वह उसके प्रभाव को अनुभव न करे। जैसे कोई विक्षत पुरूष मद्य पीकर क्षत की पीड़ा को अनुभव न करे, परन्तु उसे दुःख से मुक्त नहीं कह सकते, ऐसे ही संसार के प्रत्येक सुख का परिणाम दुःख है।
व्याख्या :
प्रश्न-पर्येषण दोष किसे कहते है?
उत्तर-विषयों में अत्यन्त लिप्सा को पर्येषण दोष कहते हैं। जिस वस्तु के प्राप्त करने का यत्य किया जाता है, प्रथम तो वह प्राप्त नहीं होती, या प्राप्त होकर नाशहो जाती है और उसकी आशा में भी बहुत कुछ कष्ट उठाना पड़ता है और फिर आशा पूरी होकर भी तृप्ति या शांति नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है दूसरी ओर उत्पन्न हो जाती है। किसी को संसार का साम्राज्य भी मिल जावे, जब भी तब भी जब तक इच्छा है, उसको शान्ति नहीं होती, इसलिए राग दुःख का और केवल वैराग्य ही सुख का कारण है, इसी की पुष्टि करते हैं-