सूत्र :समारोपणादात्मन्यप्रतिषेधः II4/1/61
सूत्र संख्या :61
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रत्येक शास्त्र उसी बात का वर्णन करता है, जो उसका प्रतिपाद्य विषय है, दूसरे के प्रतिपाद्य में वह हस्तक्षेप नहीं करता। ब्राह्यण ग्रन्थ जिनमें अधिकतर यज्ञ का वर्णन है गृहस्थश्रम से सम्बन्ध रखते हैं। इसलिए उनमें विशेष कर गृहस्थ के धर्मों की ही वर्णन है, परन्तु वे अन्य आश्रम या उनके धर्मो का खण्डन नहीं करते। इसी प्रकार वेदान्त शास्त्र उपनिषदादि जो अधिकतर मोक्ष धर्मों का विधान करते हैं, वे गृहस्थादि आश्रम या उनके धर्मों के विरोधी नहीं अतएव गृहस्थ के अधिकार में ऋणादि का विधान से मोक्ष शास्त्र में कुछ बाधा नहीं पड़ती। फिर इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं-