सूत्र :नासन्न सन्न सदसत्सदसतोर्वैधर्म्यात् II4/1/48
सूत्र संख्या :48
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : उत्पत्ति से पहले कर्मों के फल को न तो सत् कहते हैं न असत् और न सदसत् ही कह सकते हैं, क्योंकि जो फल आगामी काल में होगा, उसको सत् इसलिए हीं कह सकते कि वह अब विद्यमान नहीं हैः जब विद्यमान नहीं है तो उसके लिए जो कर्म किये जायेंगे, उनमें और आगामी होने वाले फल में कार्य कारण भाव सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि उत्पत्ति से पहले कार्य असत् माने, तो ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि प्रत्येक का कारण उत्पत्ति से पूर्व विद्यमान होता है। यदि असत् दोनों मानें तो भी ठीक नहीं, क्योंकि एक पदार्थ में दो विरूद्ध धर्म रह नहीं सकते। तात्पर्य यह कि उत्पत्ति से पहले किसी वस्तु का अभाव नहीं हो सकता, यदि अभाव होता तो वह उत्पन्न क्यों कर होती। न भाव ही हो सकता है क्योंकि यदि उत्पत्ति से पूर्व उसका भाव होता तो फिर उत्पत्ति की आवश्यकताही न थी। सदसत् भी हो सकता क्योंकि इन दोनों का परस्पर विरोध है। अब इसका उत्तर देते हैं-