सूत्र :प्राङ्निष्पत्तेर्वृक्षफलवत्तत्स्यात् II4/1/47
सूत्र संख्या :47
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस फल की इच्छा से पहले किसान भूमि को जोतता, पानी देता और फिर बीत को बोता है और ये सब कर्म फलोत्पत्ति से पहले नष्ट हो जाते हैं। इनके नष्ट होने पर बीज मिट्टि और जल के परमाणुओं से बढ़ता रहता है और फिर कमशः पत्ते, डालियां, फूल और फल आते हैं। ऐसे ही प्रत्येक कर्म से धर्माऽधर्मरूप संस्कार उत्पन्न होते हैं। वादी फिर शंका करता है।: