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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :तत्कारितत्वादहेतुः II4/1/21
सूत्र संख्या :21

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : कर्म करने से जो फल होता है, यद्यपि कर्म उनका निमित्त है, तथापि जड़ होने से उसमें ज्ञान नहीं हैं, अज्ञानी कभी स्वतन्त्र नहीं हो सकता। जैसे हाथ बिना जीवात्मा की इच्छा के कोई काम नहीं कर सकता। ऐसे ही कर्म भी बिना ईश्वर की प्रेरणा के स्वयं फल देने में समर्थ नहीं।

व्याख्या :
प्रश्न- यदि ईश्वर को फलदार माना जाये तो यह कैसे मालूम हो कि किस कर्म का क्या फल है? क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष होकर तो बतलाना नहीं। उत्तर- वेदादि शास्त्रों में और सृष्टि के नियमों में कर्मफल की व्यवस्था पाई जाती है, उसका अध्ययन करने से मालूम हो सकता है कि सात्विक कर्म का यह फल है, राजस का यह और तामस का यह। प्रश्न- जब ईश्वर में राग और द्वेष नहीं तो वह कार्यों का फल देने वाला और सृष्टि का बनाने वाला क्योंकर हो सकता है, क्योंकि बिना राग के प्रवृत्ति और बिना द्वेष के निवृत्ति हो ही नहीं सकती। उत्तर- ईश्वर का स्वभाव ही न्याय और दया करना है, अपने इसी स्वाभाविक गुण के कारण वह सृष्टि की उत्पत्ति और जीवों को कर्मफल प्रदान करता है। अल्पज्ञ और एकदेशी जीवात्मा राग से प्रेरित होकर कर्म करता है न कि सर्वज्ञ और सर्वव्यापक ईश्वर। प्रश्न- ईश्वर दयालू और न्यायकारी किस प्रकार हो सकता है, क्योंकि दया और न्याय ये दोनों परस्पर विरूद्ध गुण हैं, वे दोनों ईश्वर में कैसे रह सकते हैं? उत्तर- ईश्वर जो न्याय करता है, वह किसी प्रयोजन के लिए नहीं, किन्तु जीवों पर दया करने के लिए और ये दोनों परस्पर विरूद्ध नहीं, किन्तु एक दूसरे से सहायक हैं। जो न्यायी है वही दयालु भी है, और दयालु है वही न्यायी है। अब स्वभाववादी आक्षेप करता हैः