सूत्र :यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु II3/2/63
सूत्र संख्या :63
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : उक्त हेतु से मन का अणु होना भी सिद्ध होता है, क्योंकि यदि मन विभु होता तो उसका सब इन्द्रियों के साथ एक काल में सम्बन्ध होता, जिससे सब विषयों का एक साथ ज्ञान होना चाहिए। ऐसा न होने से जहां मन का एक होना सिद्ध होता है वहां उसका अणु होना भी सिद्ध हैं। अब यह संदेह होता है कि एक शरीर में रहने वाले मन के संस्कार उसी शरीर से सम्बन्ध रखते हैं अथवा किसी दूसरे से भी उनका सम्बन्ध हैं ? या इस प्रश्न को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मन सहित शरीर की उत्पत्ति जीवों के पूर्वकृत कर्माधीन है अथवा स्वतन्त्र पच्चभूतों से होता हैं ? इसका उत्तर देते हैं: